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(5) शिक्षा का व्यावसायिकीकरण - आज शिक्षा सेवा या पारमार्थिक कार्य नहीं रहा, बल्कि एक व्यवसाय बन गया है। निजी क्षेत्र के शिक्षालयों के व्यवस्थापकों का एकमात्र लक्ष्य होता है - 'आर्थिक लाभ और ऊँची साख'। इस हेतु ये होर्डिंग्स , पेम्पलेट्स, समाचारपत्र, टी.वी. आदि के माध्यम से विज्ञापन करते हैं, आकर्षक भवन, फर्नीचर्स, उपकरणों से शिक्षालयों को सुसज्जित करते हैं, अनैतिक तरीकों से पंजीयन, निरीक्षण, मूल्यांकन आदि कराते हैं और कई भौतिक आकर्षण, जैसे - स्वीमिंग, राइडिंग आदि सिखाने का लालच देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश शिक्षालयों में बाहरी दिखावा और भीतरी खोखलापन होता है।
ऐसे शिक्षा-संस्थानों में अध्ययनरत अयोग्य विद्यार्थियों को भी अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण कर दिया जाता है, क्योंकि इससे शिक्षा-संस्थानों की साख सुधरती है। आजकल अधिकांश निजी संस्थानों में खर्च बचाने के लिए शिक्षकों, भवन, भूमि, उपकरण, पुस्तकालय आदि से सम्बन्धित मानकों (Standards) का पालन सिर्फ कागज पर होता है, वास्तव में नहीं। यहाँ तक कि प्राचार्य, शिक्षकों
और कर्मचारियों को निर्धारित मानक से कम वेतन दिया जाता है, जबकि कागज पर अधिक दिखाया जाता है। इन सभी विसंगतियों से शिक्षा, शिक्षार्थी एवं अध्यापकों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। (6) अर्थसाध्य शिक्षा - वर्तमान शिक्षा अत्यधिक महँगी होती जा रही है, जो मध्यमवर्गीय परिवार के बूते के बाहर है। उदाहरणस्वरूप – हैदराबाद के एक शिक्षण संस्थान में इक्कीस माह के कोर्स के लिए ग्यारह लाख रूपए की फीस ली जाती है। इतना अर्थव्यय करने पर भी व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाना, यह एक सोचनीय विषय है।
इस अर्थसाध्य शिक्षाप्रणाली से आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है। धनाढ्य लोग अपने अल्प प्रतिभाशाली बालकों को ऊँचे-ऊँचे संस्थानों की महँगी शिक्षा दिलाकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों में नौकरियाँ दिलाते हैं और इस प्रकार और अधिक धनाढ्य होते जाते हैं, जबकि निम्नवर्गीय लोग अपने उच्च प्रतिभाशाली बालकों को ऐसी शिक्षा नहीं दिला पाते और उनकी आर्थिक विपन्नता दिनोंदिन बढ़ती जाती है।
मध्यमवर्गीय परिवार के लिए भी शिक्षा रोटी, कपड़े और मकान सम्बन्धी खर्चों से अधिक महँगी हो गई है, जिसकी पूर्ति के लिए घर के मुखिया को अनैतिक तरीकों से पैसा कमाना पड़ रहा है, जबकि उनके बालक उच्च सुविधायुक्त महँगे शिक्षालयों में अध्ययन करके सुविधाभोगी होते जा रहे हैं। अनुकूलता में जीने की आदत बन जाने से प्रतिकूलताओं का सामना करने में उन्हें कठिनाई आती है। उल्टा, उनकी पार्टी, पिकनिक, क्लब, फिल्म्स, टी.वी., नृत्य, अभद्र पोशाक, मद्यपान आदि को देखकर अन्य बालकों पर इसका अनुचित प्रभाव पड़ रहा है। (7) प्रारम्भिक जीवनपर्यन्त शिक्षा - शिक्षा को जीवन के प्रारम्भिक काल में की जाने वाली एक प्रक्रिया माना जाने लगा है, जबकि शिक्षा तो जीवनपर्यन्त चलने वाली एक सतत प्रक्रिया है। इससे
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अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन
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