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भी यहाँ विद्यार्थी आते थे, जैसे – चीन, तिब्बत, कोरिया, लंका आदि। इन संस्थाओं में प्रवेश के लिए भारी भीड़ होती थी, किन्तु भर्ती की संख्या नियत होने से उन्हें कठिन प्रवेश-परीक्षा से गुजरना पड़ता था। प्रायः दस में से दो-तीन का ही प्रवेश हो पाता था। सातवीं शताब्दी के मध्य में नालन्दा में प्रायः पाँच हजार विद्यार्थी अध्ययनरत थे।25
आठवीं शताब्दी के बाद मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हुई। तदुपरान्त मदरसों और मकतबों की स्थापना होने लगी। सन् 1200 के पश्चात् क्रमशः गुलामवंश, खिलजीवंश और तुगलकवंश आए। इन्होंने शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए काफी धन व्यय किया। अकेले फिरोज तुगलक ने तीस विद्यालय बनवाए। तत्पश्चात् लोदीवंश (1414-1526) के राज्यकाल में 'बदायूं' शिक्षा का एक विशाल केंद्र बना। सन् 1526 के बाद क्रमशः बाबर, हुमायूँ, अकबर और जहाँगीर का शासनकाल रहा। इसमें भी शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों की विद्याओं को संरक्षण मिला। तत्पश्चात् शाहजहाँ के शासनकाल में शिक्षा पर कोई विशेष व्यय नहीं हुआ। उसका पुत्र औरंगजेब बड़ा कट्टरपन्थी मुसलमान था और उसने केवल अपने धर्म के अनुयायियों की शिक्षा को ही प्रोत्साहन दिया। यहाँ मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया।
इस प्रकार, मध्ययुग विदेशी आक्रमणों और संस्कृति-परिवर्तनों के प्रयासों का समय रहा, फिर भी शिक्षा का महत्त्व यथावत् बना रहा। इसमें कला एवं शिल्प की उन्नति अन्य काल की तुलना में अधिक रही। इन कलाओं में मूर्तिकला, लेखनकला, नृत्यकला, संगीतकला, चित्रकला आदि से सम्बन्धित कलाएँ प्रमुख थी। इस युग में प्राचीन-साहित्य की व्याख्याएँ और नवीन साहित्य का सृजन हुआ। इतना ही नहीं, इतिहास का क्रमबद्ध लेखन होना भी इस युग की विशेषता रही। यह कटु सत्य है कि इस युग में आध्यात्मिक-शिक्षा में आंशिक न्यूनता अवश्य आई। फिर भी, यह कहना होगा की कई आक्रमणकारियों के द्वारा शिक्षा-व्यवस्था को नष्ट करने का भरपूर प्रयास करने के बावजूद भी शिक्षा का अस्तित्व बना ही रहा। 3.2.3 आधुनिक युग में शिक्षा का महत्त्व
__ आधुनिक युग प्रायः सोलहवीं शताब्दी के बाद से प्रारम्भ होता है। यह मुख्यतया यूरोपीय जातियों का जलमार्ग से आगमन का काल है। सर्वप्रथम पुर्तगाली नाविक 'वास्कोडिगामा' सन् 1498 ई. में अफ्रीका का चक्कर लगाकर भारत पहुँचा। व्यापारिक लाभ से आकर्षित होकर क्रमशः डच, डेन, फ्रांसीसी और ब्रिटिश भी भारत आए। इन्होंने मुगल साम्राज्य के शनैः-शनैः पतन और भारत की राजनीतिक दुर्बलता का अनुचित लाभ उठाया। धीरे-धीरे इनके तीन उद्देश्य विकसित हो गए - क) व्यापारिक, ख) राजनीतिक और ग) ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार। इन्होंने शिक्षा का सहारा लेकर धर्मप्रचार की नीति अपनाई। जगह-जगह पर मिशन स्कूलों की स्थापना की और संचालन के लिए ईसाई पादरियों को भारत बुलाया। इन्हें अपने-अपने देश की सरकार तथा व्यापारिक संस्थाओं द्वारा आर्थिक सहायता मिलती रही।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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