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शिक्षा-पद्धति भी कहा जाता है। यह आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का सर्वोत्तम पक्ष है, किन्तु इसका एक परिणाम यह हुआ है कि इससे आध्यात्मिक तथ्यों एवं मूल्यों के प्रति आस्था कमजोर हो गई है। (13) अनिवार्य शिक्षा – सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य रखा गया है। इसके परिपालन के लिए सरकार ने बाल-श्रमिकों की नियुक्ति, बाल-विवाह आदि को दण्डनीय अपराध माना है। सरकार द्वारा कई पिछड़े क्षेत्रों में विद्यार्थियों के लिए भोजन, वस्त्र और पाठ्यसामग्रियों का निःशुल्क वितरण किया जाता है। (14) सहायता अनुदान प्रणाली (Grant in Aid System) - शिक्षा-व्यवस्था के प्रोत्साहन के लिए आर्थिक अनुदान दिए जा रहे हैं, किन्तु इन अनुदानों की ओट में बढ़ रहे भ्रष्टाचार को रोकना भी अत्यावश्यक है। (15) अध्यापक शिक्षा - शिक्षा का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण घटक है - अध्यापक। सुयोग्य अध्यापक ही शिक्षा-व्यवस्था को सार्थक बना सकता है। अतएव अध्यापक-शिक्षा देकर अध्यापक की क्षमता का संवर्द्धन किया जा रहा है, किन्तु नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों में आई गिरावट से इस शिक्षा को भी नौकरी अथवा पदोन्नति पाने के लिए एक औपचारिकतामात्र माना जाने लगा है। (16) अध्यापकों की स्थिति में सुधार - अध्यापकों की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए अन्य सुविधाओं के साथ-साथ उनके वेतनमान में भी विशेष वृद्धि की जाती रही है, जिससे वे निश्चिन्ततापूर्वक अपना कर्त्तव्य-निर्वाह कर सकें। किन्तु इसके साथ ही उनकी विलासिता एवं अनैतिकता को नियंत्रित करने के लिए भी ध्यान देना आवश्यक हो गया है।
__जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक शिक्षाप्रणाली की समीक्षा
आधुनिक शिक्षाप्रणाली की उपर्युक्त विशेषताएँ भले ही नवीन महसूस हों, लेकिन इनमें से अधिकांश अंशतः या पूर्णतः प्राचीनयुग में भी विद्यमान थी, जैसे - ★ जैनदर्शन में भी लौकिक-शिक्षा पर बल दिया गया है, इसीलिए प्राचीन जैनग्रन्थों में षट्कर्म शिक्षा (असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प) का वर्णन मिलता है। फिर भी, इतना अन्तर अवश्य है कि जैन-शिक्षा-पद्धति में शिक्षा के लौकिक-पक्ष को जीवन का अन्तिम उद्देश्य (Ultimate Goal) नहीं माना गया है। ★ 'क्रमबद्ध शिक्षा' का बीज हमें प्राचीन शिक्षा-विधि में भी मिलता है। उसमें भी सैद्धान्तिक और प्रायोगिक दोनों प्रकार की शिक्षाओं का क्रम वर्णित है। उदाहरणस्वरूप, जैनशिक्षा में आगमग्रन्थों के अध्ययन का एक क्रम निर्धारित है। इसी प्रकार से 'व्रत-प्रतिमा व्यवस्था' के द्वारा चारित्रिक मूल्यों के क्रमिक विकास पर बल दिया गया है।48 समाधिमरण के लिए भी क्रमिक तैयारी का निर्देश दिया गया है इत्यादि।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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