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(2) व्यावसायिक दृष्टिकोण (Professional Attitude) - 'यदि हमारे बच्चे पढ़ेंगे, तो ही व्यापार को सँभाल सकेंगे, फैला सकेंगे और प्रतिस्पर्धाओं का सामना कर सकेंगे' - यह आकांक्षा एवं अपेक्षा भी माता-पिता को प्रेरित करती है कि वे बालकों को पढ़ाएँ।
____ आज ऐसे माता-पिता बालकों को आर्थिक उपलब्धियों और तज्जन्य सुखसुविधाओं का सपना दिखाकर उन्हें नैतिक और आध्यात्मिक विकास से विमुख कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा का सार है - 'चलाओ चक्की, कमाओ धन'। वे बालकों की बौद्धिक क्षमता तो विकसित करना चाहते हैं, लेकिन उनकी नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा को महत्त्वपूर्ण नहीं मान रहे हैं। इसका एक दुष्परिणाम यह है कि कई बालक अपने माता-पिता और परिजनों से भी अधिक महत्त्व अपने व्यवसायों और उद्योगों को देने लगे हैं। (3) भारमुक्त जीवन की आस – कई अभिभावक विशेषतः माताएँ बालकों की अनुशासनहीनता,
खेलकूद, गाना-बजाना आदि क्रियाकलापों से परेशान हो जाती हैं। वे इस चिन्ता और भार से मुक्त होने के लिए बच्चों को विद्यालय भेज देती हैं और अपना भार शिक्षक-शिक्षिकाओं पर डाल देती हैं। पुनः यही कार्य शिक्षक-शिक्षिकाएँ भी करते हैं, जो अपने दायित्व से मुक्त होने के लिए बालकों को गृहकार्य (Homework) आदि देकर बालक के माता-पिता या अभिभावकों पर बोझ डालने का प्रयास करते हैं।
इसका दुष्परिणाम यह आ रहा है कि बालकों के विकास के लिए दोनों में से कौन-सा तत्त्व जवाबदार है, यह निश्चित करना बहुत कठिन हो गया है। इससे बालकों की स्वच्छन्दता और अधिक बढ़ने लगी है। अंग्रेजी में कहावत भी है – Too many cooks spoil the food. (4) स्वच्छन्द अथवा स्वतन्त्र जीवन की चाह – कई माता-पिता सामाजिक अथवा वैयक्तिक क्षेत्र के किसी विशेष कार्य से जुड़े होते हैं, जिसके लिए उन्हें स्वतन्त्रता चाहिए होती है अथवा उनकी भोगपरक आकांक्षाएँ होती हैं, जिसके लिए उन्हें प्रतिबन्धरहित जीवन की चाह होती है। कुल मिलाकर, उनके पास बालकों के लिए समय ही नहीं होता, अतः बालकों को पढ़ने के लिए दूर भेज देते हैं। अमेरिका (U.S.A.) आदि में यही हो रहा है।
इसका दुष्परिणाम यह आ रहा है कि माता-पिता के प्रति बालकों की निष्ठा और समर्पण समाप्त होते जा रहा है। प्राचीन शास्त्रों में बालकों की शिक्षा के विषय में यह बताया गया है कि शिक्षक से दस गुणा अधिक पिता और पिता से सौ गुणा अधिक महत्त्व माता का है, परन्तु आज माता-पिता बालकों के समक्ष नैतिक और आध्यात्मिक जीवन-आदर्श ही नहीं दे पा रहे हैं, जिसका अनुकरण कर वे अपना चारित्रिक विकास कर सकें। (5) बुढ़ापे का सहारा – 'हमारा बच्चा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा और हमारे बुढ़ापे की लाठी बनेगा' - ऐसी स्वार्थबुद्धि से प्रेरित होकर भी अभिभावक बच्चों को पढ़ाते हैं।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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