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सन् 1813 में मिशनरियों को भारत जाकर धर्म प्रचार की अधिक स्वतन्त्रता दे दी गई। इसी वर्ष ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को भारत पर शासन करने सम्बन्धी आज्ञा पत्र का नवीनीकरण भी किया। प्रतिवर्ष एक लाख रूपए या अधिक का व्यय शिक्षा क्षेत्र में करने का प्रावधान किया, जिसे सन् 1833 में बढ़ाकर दस लाख कर दिया गया। सन् 1835 में मैकाले ने अपना विवरण–पत्र पेश किया, जिसमें उसने पाश्चात्य शिक्षा पर जोर दिया। वह अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहता था। उसने कहा, “हम भारत में ऐसे व्यक्तियों का वर्ग बनाना चाहते हैं, जो रंग और रक्त में भले ही भारतीय हों, परन्तु खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार तथा बुद्धि में पूरे अंग्रेज हों।"35 तत्कालीन गवर्नर लार्ड बैंटिक ने मैकाले का विवरण–पत्र स्वीकार कर लिया।
सन् 1830 से सन् 1857 तक का काल 'मिशन विद्यालय युग' कहलाया, क्योंकि इसमें मिशनरियों का शिक्षा प्रयास काफी बढ़ गया था। इस बीच बम्बई में विल्सन कॉलेज, मद्रास में क्रिश्चियन कॉलेज, मछलीपटनम में नोबल कॉलेज , नागपुर में क्रिश्चियन कॉलेज, आगरा में सेंट जांस कॉलेज आदि स्थापित हुए। अब अंग्रेजी माध्यम वाले माध्यमिक विद्यालय और महाविद्यालय ज्यादा खोले जाने लगे, जिनमें बाइबिल की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। विद्यार्थियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई, क्योंकि लोगों में सरकारी नौकरियों के प्रति बेहद आकर्षण था।"
सन् 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम होने के बाद कम्पनी द्वारा भारत का शासन महारानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया। सन् 1882 के बाद का काल भारतीय शिक्षा के इतिहास में महत्त्वपूर्ण क्रान्ति और प्रगति का युग था। अब तक विदेशी शासकों द्वारा किया गया शिक्षा सुधार, वस्तुतः राजनीतिक स्वार्थपूर्ति से अभिप्रेरित था, इसीलिए भारतीयों ने 'शिक्षा' को राष्ट्रीय आन्दोलन का मुख्य अंग बना दिया।
इस प्रकार, आधुनिक युग में 'शिक्षा' का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति का विकास नहीं, बल्कि राजनीतिक, व्यापारिक और धार्मिक प्रचार ही रह गया।
विस्तृत चर्चा के पश्चात् यह रहस्य उद्घाटित होता है कि प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक युग के आगमन तक शिक्षा और शिक्षण-पद्धति में व्यापक परिवर्तन जरूर आए, लेकिन शिक्षा को समाज ने हमेशा ही शीर्ष स्थान दिया। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक बाधाओं के बावजूद भी शिक्षा के प्रति उसका पूर्ण झुकाव बना रहा। अतः कहा जा सकता है कि शिक्षा का मानव जीवन में सार्वकालिक महत्त्व रहा है।
फिर भी, यह मानना होगा की समय के प्रवाह में प्राच्य शिक्षा का ह्रास और पाश्चात्य शिक्षा का विकास हुआ। इससे आध्यात्मिक एवं नैतिक संस्कृति का पतन हुआ और भौतिक एवं स्वार्थपरक संस्कृति की प्रगति हुई। यह असन्तुलित शिक्षा जीवन की अव्यवस्था का कारण है और इसे सुधारना ही शिक्षा-प्रबन्धन का ध्येय है। इसकी चर्चा आगे विस्तार से की जाएगी।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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