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कारण भी किसी ने मानव संसाधन को महत्त्व दिया, तो किसी ने नेतृत्व आदि को।
उपर्युक्त चर्चा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विचारक देश, काल एवं परिस्थितिविशेष में जिस दृष्टिकोण से प्रबन्धन को देखता है, वह उसी आधार पर प्रबन्धन की अवधारणा बना लेता है और ऐसी स्थिति में मत-वैविध्य सामने आते हैं। उदाहरणस्वरूप, यदि कुछ दृष्टिविहीन पुरूष हाथी के विविध अंगो को छुएँ, तो वे हाथी के बारे में विविध मत बना लेते हैं। कोई कहता है कि हाथी स्तम्भ के समान गोलाकार है, तो कोई कहता है कि सूपड़े के समान पतला है इत्यादि। ये सभी पक्ष अपेक्षा–भेद से सत्य होते हुए भी एकांगी एवं अपूर्ण हैं।136
इस समस्या का समाधान जैनदर्शन का अद्वितीय, अनुपम और असाधारण सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' है। अनेकान्तवाद के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति या कार्य के अनेक पक्ष या आयाम होते हैं और इसीलिए प्रबन्धन कार्य के भी अनेक आयाम हैं। चूँकि जैनदर्शन किसी भी कार्य के सर्व पक्षों पर अर्थात् समग्रता पर जोर देता है, इसीलिए हमने प्रस्तुत शोध-कार्य हेतु जैनआचारमीमांसा को आधार बनाया है। 1.4.5 प्रबन्धकीय विचारधाराओं की कमियों से उभरने के मापदण्ड
___ आधुनिक विचारकों द्वारा प्रबन्धकीय विचारधारा के विकास के लिए जो अथक प्रयास किए गए हैं, वे तभी सफल हो सकते हैं, जब उनमें दृष्टि की संकीर्णता नहीं, बल्कि व्यापकता हो। अतः मेरे विचार में यहाँ यह आवश्यक है कि हम प्राचीन दर्शनों और विशेषतया जैनदर्शन का आश्रय लेकर 'प्रबन्धन' की विचारधारा को आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित और स्थिर करें। इस हेतु हमें जैनदर्शन के अनैकान्तिक दृष्टिकोण को आधार बनाना होगा और वर्तमान में प्रचलित प्रबन्धकीय अवधारणाओं की कमियों से उभरने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं का समावेश करना होगा - (1) प्रबन्धन की सार्वभौमिकता – 'प्रबन्धन' का क्षेत्र अतिविस्तृत और बहुआयामी (Multidimensional) है। अतः हमें अपनी प्रबन्धकीय विचारधारा को सिर्फ औद्योगिक या व्यावसायिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखते हुए सार्वभौमिक (सर्वव्यापी) बनाना होगा और इस हेतु हमें प्रबन्धन के अन्तर्गत आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्षों का सन्तुलित समावेश करना होगा। (2) प्रबन्धन की सार्वकालिकता - प्रबन्धकीय विचारधाराओं में बारम्बार परिवर्तन आने का मुख्य कारण बदलता हुआ परिवेश माना जाता है, लेकिन जैनदर्शन का यह दृष्टिकोण है कि प्रबन्धन के कुछ सिद्धान्त परिवर्तनशील (कालिक) होते हैं और कुछ अपरिवर्तनशील (शाश्वत्) भी। अतः प्रबन्धकीय विचारधारा में देश, काल एवं परिस्थितिजन्य परिवर्तनों के लिए लचीलापन भी होना चाहिए, तो उसमें शाश्वत् मूल्यों के स्थायित्व की सुव्यवस्था भी होनी चाहिए। इसमें न अतितरलता होनी चाहिए और न ही अतिकठोरता, बल्कि परिस्थितियों का सामना करने के लिए सार्वकालिक प्रासंगिकता की विशिष्टता होनी चाहिए।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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