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होते हैं, जो सामाजिक एकता तथा अखण्डता को जोड़ने का नहीं, वरन् तोड़ने का कार्य करते हैं। इन्हें हम समाज-उदासीन (Socially Neutral) एवं असामाजिक (Antisocial) तत्त्व कहते हैं। जीवन-प्रबन्धन के लिए इन तत्त्वों से दूर रहना भी आवश्यक है।
जैनधर्म की आचार व्यवस्था इस हेतु विशेष सहयोग देती है। इसकी दृष्टि सामाजिक भावनाओं से पराङ्मुख होने की नहीं, अपितु सामाजिक दायित्वों का उचित निर्वाह करने की है। इसमें विविध पर्व-परम्पराओं के माध्यम से सात्विक सामाजिक चेतना को जाग्रत करने का प्रयत्न किया गया है। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह को पापकारी प्रवृत्तियाँ बताया गया है, जो सामाजिक व्यवस्था को विकारी बनाती हैं। कुसंगति एवं सत्संगति का भेद स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'साधक को सदैव कल्याणकारी मित्र का ही साथ करना चाहिए। यह भी कहा है कि 'दुर्जन या अकल्याणकारी मित्र की संगति करने से सज्जन भी निश्चय ही अपने गुणों से रहित हो जाता है। यह ठीक उसी तरह होता है, जिस तरह अग्नि के संयोग से जल भी अपने शीतल स्वभाव को खो देता है। 31 जैनआचारशास्त्र में वर्णित है कि मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ की भावनाएँ ही सामाजिक संगठन को मजबूती प्रदान करती हैं। कहा भी गया है? -
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।। (5) पद के अनुरूप अपने कर्तव्यों का पालन करने का निर्देश
___व्यक्ति व्यक्ति भी होता है और समाज भी। उसे अपने जीवन में अनेक पदों को सम्भालना होता है, जैसे - वह कभी पुत्र की भूमिका में होता है, तो कभी पिता की, कभी कार्यकर्ता की भूमिका में होता है, तो कभी अतिथि की, कभी स्वामी की भूमिका में होता है, तो कभी सेवक की इत्यादि। जीवन-प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी भूमिका या स्तर के अनुरूप अपने कर्तव्यों का उचित पालन करे। जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत इसे भूमिका-प्रबन्धन (Role Management) कहा जाता है।
जैन-विचारकों ने आचारशास्त्रों के द्वारा भूमिका प्रबन्धन के उचित निर्देश दिए हैं। जैन-परम्परा में आचार्य, उपाध्याय, साधु एवं श्रावक के न केवल भिन्न-भिन्न स्तर बताए गए हैं, अपितु इनके कार्यों में भी उचित विभाजन किया गया है। जैन-विचारकों ने उत्सर्ग एवं अपवाद की व्यवस्था भी इसी उद्देश्य से की है। किसी भूमिका में किसी अपवाद का सेवन करने की छूट दी है, तो किसी अन्य भूमिका में उसी अपवाद का निषेध भी किया है। अतः कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने उचित समय एवं परिस्थिति में उचित भूमिका का निर्वाह करते हुए उचित कर्त्तव्यों को निभाने की चेतना जगाने का निर्देश दिया है। यह जीवन के सम्यक् प्रबन्धन के लिए आवश्यक है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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