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उपर्युक्त चर्चा में इन तीनों शास्त्रों का विश्लेषणात्मक (भेद) सम्बन्ध प्रस्तुत किया गया है, परन्तु यदि संश्लेषणात्मक (अभेद) दृष्टि से इनके पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन किया जाए, तो एक नूतन निष्कर्ष प्राप्त होता है, वह यह है कि ये तीनों परस्पर एकरूप ही हैं। इनमें अटूट, अभिन्न एवं सार्वकालिक सम्बन्ध है। इस बात की पुष्टि तब होती है, जब हम गहराई से इनमें प्रवेश करते हैं। वास्तव में इनमें केवल समझने के लिए भेद किया जाता है, यथार्थ में ये तीनों अभेद ही हैं। इन तीनों की एकता ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति का मार्ग है। आशय यह है कि मूलतः दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र एवं प्रबन्धनशास्त्र तीनों में एकत्व है और इस एकत्व के द्वारा ही जीवन का सम्यक् प्रबन्धन सम्भव है। 2.3.1 जैनआचारमीमांसा एवं जीवन-प्रबन्धन के सह-सम्बन्ध को सुनिश्चित
करने वाले कतिपय बिन्दु
जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत जीवन के परमलक्ष्य एवं उसके मार्ग के निर्धारण को लेकर अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जिनका निराकरण जैनआचारमीमांसा के माध्यम से होता है। वस्तुतः, जैनआचारमीमांसा जीवन-प्रबन्धन के क्षेत्र में निम्नलिखित निर्देश देती है - (1) साध्य एवं उसके साधन का निर्देश
जीवन-प्रबन्धन का मौलिक प्रश्न है कि जीवन का आदर्श या परमसाध्य क्या है तथा उसकी उपलब्धि का सम्यक् मार्ग क्या है? क्या जैसे-तैसे जीवन निर्वाह करना ही जीवन-लक्ष्य है या जीवन का कोई महान् या व्यापक आदर्श भी है? यदि है, तो वह क्या है? इन समस्त प्रश्नों के उत्तर जाने बिना जीवन-प्रबन्धन की सम्यक् नींव नहीं डाली जा सकती। इनके सम्यक् निराकरण की प्राप्ति जैनआचारमीमांसा से होती है। आचार्य वट्टकेर के अनुसार, 'जिनशासन में केवल दो ही बातें बताई गई हैं – मार्ग (साधना-पथ) एवं मार्ग का फल (साधना का आदर्श)।22 आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट कहा है कि लक्ष्य से विहीन साधक विकारों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् जीवन का सम्यक् प्रबन्धन नहीं कर सकता। ऐसे साधक की स्थिति उस अन्धे व्यक्ति के समान है, जो चाहे कितना भी बहादुर हो, परन्तु शत्रु सैन्य को पराजित नहीं कर सकता। सर्वार्थसिद्धिकार ने भी टीका के प्रारम्भ में कहा है कि 'मैं मोक्षमार्ग के प्रणेता, कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाले तथा विश्व के तत्त्वों को जानने वाले अरिहन्त परमात्मा को, उनके समान गुणों की प्राप्ति के उद्देश्य से वन्दन करता हूँ।24 आशय स्पष्ट है कि पहले साध्य निर्धारित होना चाहिए, फिर उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार, जैन विचारकों ने लक्ष्य एवं मार्ग के निर्धारण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है, जो जीवन के सम्यक् प्रबन्धन के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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