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उपर्युक्त दोनों स्तर के दर्शनों (आस्था) को उत्पन्न करने एवं जीवन-व्यवहार में चारित्रशुद्धि आदि के लिए उनका प्रयोग करने सम्बन्धी जो व्यवहार किया जाता है, वही दर्शनाचार है। जैनाचार्यों ने जीवन-व्यवहार के सम्यक् प्रबन्धन के लिए दर्शनाचार को नींव के पत्थर के समान माना है। जैसे नींव के बिना इमारत खड़ी नहीं हो सकती, वैसे ही दर्शन या दृष्टिकोण की शुद्धि के बिना जीवन-प्रबन्धन में प्रगति नहीं हो सकती। जैनाचार्यों ने दर्शनशुद्धि का मूल्यांकन करने के लिए उपयोगी निर्देश भी दिए हैं, जैसे - 1) जीवन-प्रबन्धक को सिद्धान्तों के प्रति सन्देहरहित होना चाहिए। 2) उसमें नाम, प्रसिद्धि, सम्मान आदि की कामना नहीं होनी चाहिए। 3) अन्य जीवन-प्रबन्धकों के किसी अमहत्त्वपूर्ण दुर्बलपक्ष (जैसे - शारीरिक दुर्बलता आदि) को
देखकर उसे अश्रद्धा नहीं होनी चाहिए। 4) जीवन-प्रबन्धन से वंचित अर्थात् असन्तुलित जीवन जीने वालों के किसी अमहत्त्वपूर्ण सबल पक्ष
(जैसे – ऋद्धि-सिद्धि आदि) को देखकर अन्धश्रद्धा नहीं होनी चाहिए। 5) गुणीजनों के गुणों की प्रशंसा में उत्साहित रहना चाहिए, न कि उनके गुणों को छिपाने में। 6) जीवन-प्रबन्धन से पतित हो रहे जीवों को पुनः सन्मार्ग में स्थिर करना चाहिए। 7) अन्य जीवन-प्रबन्धकों के प्रति वात्सल्य भाव रखना चाहिए, उन्हें देखकर प्रमुदित होना चाहिए
तथा उनका सम्मान करना चाहिए। 8) जो लोग जीवन-प्रबन्धन से वंचित हैं और अशांतिमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उन्हें
जीवन-प्रबन्धन के मार्ग की ओर प्रेरित करना चाहिए।
उपर्युक्त गुणों से सुसज्जित जीवन-प्रबन्धक दर्शनाचार के माध्यम से एक ओर चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार का संवर्द्धन करता है, तो दूसरी ओर ज्ञानाचार से उपार्जित ज्ञान का संरक्षण भी करता है। वह अपनी दर्शनशुद्धि के बल पर जीवन-प्रबन्धन के लक्ष्य की ओर अटल आस्था के साथ बढ़ता चला जाता है। इस प्रकार, दर्शनाचार जीवन-प्रबन्धन का अत्यावश्यक अंग है। (3) चारित्राचार - आचार का तृतीय भेद चारित्राचार है। चारित्राचार का सम्बन्ध जीवन के आचरण-पक्ष से है। जैनाचार्यों के अनुसार, आत्मा में आचरण करने की एक विशिष्ट योग्यता होती है, जिसे चारित्र गुण कहते हैं। इसी गुण के बल पर शुभ (कम), अशुभ (विकर्म) एवं शुद्ध (अकर्म) भाव जीवों के द्वारा किए जाते हैं। जीवन-प्रबन्धन में सकारात्मक आचरण की अत्यधिक उपयोगिता है।
जीवन-प्रबन्धन के मार्ग में साधक ज्ञानाचार से उपार्जित ज्ञान एवं दर्शनाचार से प्राप्त दृष्टि या श्रद्धा के आधार पर चारित्रांचार के प्रयत्नों को करता है। वह ज्ञान एवं दर्शन के आधार पर निर्धारित लक्ष्य एवं उसके मार्ग का अनुसरण करता है। वस्तुतः, जीवन-प्रबन्धन के लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाते हुए अपने आचरण की शुद्धि करना ही चारित्राचार है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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