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करने के पूर्व चारित्राचार सम्बन्धी प्राथमिक शुद्धि करे। जैनाचार्यों ने व्यसनमुक्त जीवन, भक्ष्य-अभक्ष्य विवेक, कल्प्य-अकल्प्य (उपयुक्त-अनुपयुक्त) विवेक, मन्दकषायीपना, आपसी व्यवहार में सामंजस्य आदि गुणों से युक्त साधक को ज्ञानार्जन के लिए योग्य पात्र माना है। कदाचित् ज्ञानार्जन के पूर्व ये सुधार न भी हों, तो भी ज्ञानार्जन करते हुए इन गुणों की प्राप्ति शीघ्रता से कर लेनी चाहिए। जीवन-प्रबन्धक को यह भी चाहिए कि वह ज्ञान देने वाले गुरुजनों एवं शास्त्रों के प्रति विनय एवं समर्पण रखे, विषय के अध्ययन में विवेक रखे, स्याद्वाद शैली (सापेक्ष दृष्टिकोण) से जीवन-सिद्धान्तों को समझे। वह एकान्त-पक्ष का ग्रहण न करे एवं जीवन-व्यवहारों का अनेकान्तस्वरूप से निर्णय करे। वह विषय का अध्ययन गहनता एवं व्यापकता के साथ करे। वह समझे कि अन्य व्यक्तियों की विषय के बारे में क्या अवधारणाएँ हैं? उसकी और अन्य व्यक्तियों की विचारधाराओं में क्या अन्तर है? इस अन्तर का कितना महत्त्व है? इस अन्तर से जीवन में कितनी नकारात्मकता है और कितनी सकारात्मकता? जीवन के नकारात्मक पक्षों को हटाने के लिए क्या समाधान है? जैनआचारशास्त्र की इनमें क्या उपयोगिता है और जैनआचार का जीवन में कैसे प्रयोग किया जा सकता है? इत्यादि प्रश्नों के निराकरण के लिए वह बारम्बार चिन्तन-मनन करे तथा आवश्यकतानुसार दूसरों से सहयोग ले। इस प्रक्रिया से प्राप्त निर्णय ही दर्शनाचार के लिए आधार बन जाता है। इस प्रकार ज्ञानाचार जीवन-प्रबन्धन के लिए अत्युपयोगी है। (2) दर्शनाचार - आचार का द्वितीय भेद दर्शनाचार है। इसका सम्बन्ध दर्शन सम्बन्धी आचार-व्यवहार से है। दर्शन के व्यावहारिक दृष्टि से अनेक अर्थ होते हैं - दृष्टिकोण, सिद्धान्त, श्रद्धा, आस्था, प्रतीति, विश्वास, अभिप्राय आदि। जैनाचार्यों के अनुसार, दर्शन आत्मा का कार्य है, न कि शरीर आदि का।
दर्शन जब सकारात्मक दृष्टि से युक्त होता है, तब यह जीवन-प्रबन्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। प्राथमिक स्तर पर यह दर्शन जीवन-प्रबन्धक के भीतर गुरुजनों आदि (सुदेव-सुगुरु-सद्धर्म) के प्रति श्रद्धा कराता है, जिससे ज्ञानाचार आदि अन्य आचारों की प्राथमिक शुद्धि आसान हो जाती है। साधक अनुसरणात्मक पद्धति (Followership) से गुरुजनों की आज्ञा का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करता है। 'आणाए धम्मो' अर्थात् गुरुजनों आदि की आज्ञा को अपना करणीय कर्त्तव्य मानता है। इससे वह शीघ्र ही सत्समागम में रहकर अपनी प्रगति कर लेता है।
परिपक्व स्तर पर पहुँचने के पश्चात् जीवन-प्रबन्धक ज्ञानाचार से प्राप्त ज्ञान की अनुभूतिपूर्वक श्रद्धा करता है। वह सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठावान् हो जाता है,52 उसे अपने जीवनलक्ष्य एवं उसकी प्राप्ति के मार्ग पर अटल आस्था हो जाती है, वह उचित-अनुचित का निर्धारण करने के लिए स्वयं समर्थ हो जाता है।
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अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन
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