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3. 2 शिक्षा की सार्वकालिक महत्ता
मानव प्राचीनकाल से ही जीवन के विकास के लिए प्रयत्नशील रहा है। चूँकि विकास की प्राप्ति शिक्षा पर निर्भर है, अतः मनुष्य ने शिक्षा को जीवन में प्रमुख और प्राथमिक स्थान दिया है। मनुष्य की सदैव यह मान्यता रही है कि शिक्षा एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करती है, जो जीवन का सर्वांगीण विकास कर सके। उसके अनुसार, जीवन के बिना शिक्षा अस्तित्वविहीन होती है और शिक्षा के बिना जीवन व्यक्तित्वविहीन होता है। इस प्रकार, विकास के लिए तत्पर मानव-जाति की दृष्टि में जीवन और शिक्षा का अन्योन्याश्रित / अभिन्न सम्बन्ध है । यही तथ्य शिक्षा के सार्वकालिक महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए पर्याप्त है। इसकी सम्पुष्टि के लिए आगे चर्चा की जा रही है ।
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प्रागैतिहासिककाल से ही शिक्षा के दो मुख्य पक्ष रहे हैं लौकिक और आध्यात्मिक । लौकिक-व्यवहार के परिपालन के लिए लौकिक-शिक्षा उपयोगी है, जबकि मानसिक विकारों, आत्म-कलुषताओं और तनावों से विमुक्त होकर आत्मिक - आनन्द की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक-शिक्षा उपयोगी है।
विभिन्न युगों में प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षण-पद्धतियाँ इस प्रकार हैं
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3.2.1 प्राचीन युग में शिक्षा का महत्त्व
प्रायः ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व तक प्राचीन युग का समय माना जाता है। इसमें भारतीय - संस्कृति की दो धाराएँ प्रचलित रहीं वैदिक एवं श्रमण । श्रमण - परम्परा अन्तर्गत भी दो शाखाएँ मुख्य रूप से प्रसिद्ध हुई जैन एवं बौद्ध । जैन मान्यता जैन आगमों पर बौद्ध चिन्तन त्रिपिटकों पर और वैदिक विचार वेदों पर आधारित हैं। अतः भारतीय - संस्कृति में जीवन - प्रबन्धन सम्बन्धी जो मान्यताएँ हैं, उन सबका आधार ये तीनों स्रोत हैं। 14
(1) जैनशिक्षा
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जैन-परम्परा श्रमण संस्कृति का संवहन करती है । यह मूलतः आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करती है, लेकिन इसका भी लोक से सम्बन्ध तो रहा ही है। विशेषता यह है कि इसमें लौकिक शिक्षा भी इस प्रकार दी गई है कि वह आध्यात्मिक उपलब्धियों का साधन बन सके। जैन - शिक्षा में दुःखमुक्ति या तनावमुक्ति के जो प्रबन्धन - सूत्र प्ररुपित किए गए हैं, वे लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवन में समानरूप से उपयोगी हैं। कहा जा सकता है कि जैन - परम्परा मुख्यता से निवृत्तिमार्गी जीवन की शिक्षा देती है, फिर भी उसमें प्रवृत्तिमार्गी जीवन के लिए उपयोगी दिशा-निर्देश भी विद्यमान हैं। इन दोनों का सम्यक् समन्वय जीवन - प्रबन्धन के लिए अपेक्षित है। इसकी प्रयोगात्मक चर्चा शिक्षा - प्रबन्धन के रूप में आगे विस्तार से की जाएगी ।
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जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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