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2.5 निष्कर्ष
____ भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में जैन विचारधारा का अपना विशिष्ट स्थान है। इसमें वैश्विक सत्य को प्रकाशित करके जीवन का नैतिक-विकास करने वाले बिन्दुओं का सम्यक् निर्देश दिया गया है। इसमें उपदिष्ट साहित्य में से जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं, उन्हें 'जैनदर्शनशास्त्र' कहते हैं तथा जो दर्शन के आधार पर जीवन-व्यवहार की नीतियों का मार्गदर्शन करते हैं, उन्हें 'जैनआचारशास्त्र' कहते हैं। इन दोनों का सीधा सम्बन्ध मानव-जीवन से है, क्योंकि जब तक 'दर्शन' के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध नहीं होता, तब तक 'आचार' का सम्यक मूल्य
ब तक 'आचार' का सम्यक् मूल्यांकन भी नहीं हो पाता है। ये दोनों शास्त्र एक-दूसरे में इतने गुंथे हुए हैं कि इनके बीच विभाजन-रेखा खींच पाना आसान नहीं है, इसीलिए जैन विचारधारा का अभिमत यही है कि दर्शन एवं आचार को अलग-अलग देखा तो जा सकता है, किन्तु अलग-अलग किया नहीं जा सकता।
जैनदर्शनशास्त्र का उद्देश्य जीवन के सैद्धान्तिक-पक्षों का निर्देशन करना है, तो जैनआचारशास्त्र का उद्देश्य जीवन के प्रायोगिक-पक्षों का प्रतिपादन करना है। जैनआचारमीमांसा इसीलिए मनुष्य के समक्ष उसके साध्य एवं साधनों को स्पष्ट करती है। इतना ही नहीं, वह जीवन के अनन्तर (Immediate) एवं परम्पर (Ultimate) दोनों साध्यों का समन्वय करते हुए जीने की कला भी सिखाती है। इसका आश्रय लेकर व्यक्ति अपने आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार के विकास की दिशा में अग्रसर हो सकता है।
जैनदर्शनशास्त्र एवं जैनआचारशास्त्र को आधार बनाकर जीवन जीने की कला के सम्यक क्रियान्वयन की प्रक्रिया का मार्गदर्शन जिसके माध्यम से हो सकता है, उसे जैनप्रबन्धनशास्त्र कहा जा सकता है। जहाँ दर्शनशास्त्र सिद्धान्तों का शास्त्र है और आचारशास्त्र प्रायोगिक-नीतियों का शास्त्र है, वहीं प्रबन्धनशास्त्र जीवन-प्रबन्धन के क्रियान्वयन के सत्रों का शास्त्र है। इन तीनों का अत्यन्त निकटवर्ती सम्बन्ध है। अभेद-दृष्टि से देखें, तो जो दर्शन है, वही आचार है और जो आचार है, वही प्रबन्धन है। भेद-दृष्टि से देखें, तो इन तीनों में क्रमशः आधार-आधेय, व्यापक-व्याप्य एवं सामान्य-विशेष सम्बन्ध है। विशेषता यह है कि दर्शन से आचार और आचार से प्रबन्धन का जीवन से क्रमशः निकटवर्ती सम्बन्ध है। इस जैनप्रबन्धनशास्त्र की रचना ही प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का अन्तिम उद्देश्य है।
जैनआचारमीमांसा जीवन-प्रबन्धन के क्षेत्र में अनेक निर्देश देती है, जैसे - साध्य और साधन सम्बन्धी, उचित और अनुचित कृत्यों सम्बन्धी, जीवन-व्यवहार का मूल्यांकन करने सम्बन्धी, सामाजिक नियमों अथवा रीति-रिवाजों सम्बन्धी इत्यादि। इससे जैनआचारशास्त्र एवं जीवन-प्रबन्धन का सह-सम्बन्ध स्पष्टतया द्योतित होता है।
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अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन
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