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जीवन-प्रबन्धन के सहायक उद्देश्य या उपसाध्य
___ जीवन-प्रबन्धन का यह सहायक उद्देश्य है कि व्यक्ति उपर्युक्त साध्यों की प्राप्ति का प्रयास करता हुआ जगत् में विद्यमान जीवों को दुःखी न करे और जड़ पदार्थों का अनुचित दोहन भी न करे। यह तथ्य निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट है - 1) पर-दुःख-कातरता – जीवन-प्रबन्धन का एक सहायक उद्देश्य है – किसी को भी दुःखी नहीं
करना। जीवन में प्रतिदिन और प्रतिपल हमारे आसपास के परिवेश में नानाविध प्राणी रहते हैं। इन प्राणियों को हमारी दोषपूर्ण जीवनशैली से किसी प्रकार की पीड़ा, कष्ट, निराशा, शोक, तनाव अथवा दुःख उत्पन्न नहीं होना चाहिए। जैनधर्मदर्शन का लोकप्रचलित सिद्धान्त है - 'धम्ममहिंसा समं नत्थि228 अर्थात् अहिंसा ही परम धर्म है। वस्तुतः, अहिंसा का जितना सूक्ष्म प्ररूपण जैनधर्मदर्शन में हुआ है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। स्थूलरूप से भी कहें, तो मन, वचन एवं काया - इन तीनों योगों से न हिंसा करना, न हिंसा कराना और न हिंसा का अनुमोदन करना, यह जीवन-प्रबन्धन का प्रथम उपसाध्य है। वस्तुतः , जीवन-प्रबन्धन स्वार्थपूर्ति का चातुर्य नहीं, बल्कि स्वहित और परहित का सुन्दर समायोजन है। संक्षेप में कहें, तो यह
'जिओ और जीने दो' का प्रायोगिक रूप है। 2) प्रकृति का संरक्षण – जीवन-प्रबन्धन का एक और उपसाध्य है - प्रकृति का संरक्षण करना।
जीवन-प्रबन्धन की दृष्टि से प्रकृति के बिना प्राणी का अस्तित्व सम्भव ही नहीं है। प्रकृति के उपकार से ही जीवनरूपी वृक्ष अंकुरित, पोषित, पल्लवित, पुष्पित और फलीभूत होता है, फिर भी कृतघ्न एवं क्रूर मानव प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ कर रहा है। परिणामतः व्यक्ति स्वयं ही स्वयं के लिए खतरा बनता जा रहा है। अतः जीवन-प्रबन्धन की दृष्टि से व्यक्ति का जीवन इतना संयमित होना चाहिए कि प्रकृति और जीवन दोनों का संरक्षण हो जाए। जैनधर्मदर्शन का अपरिग्रह-सिद्धान्त इस लक्ष्य की पूर्ति में विशेष सहयोगी है। यह सिद्धान्त जीवन में अनावश्यक संचय को रोकने की प्रेरणा देता है, जिससे न केवल प्रकृति का संरक्षण होता है, अपितु जीवन में निर्भारता का आनन्द भी सहज रूप से प्राप्त होता रहता है। यह आनन्दमयी जीवन दशा जीवन-प्रबन्धन का द्वितीय उपसाध्य है।
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य जीवन और जगत् दोनों के लिए हितकारी जीवनशैली का निर्माण करते हुए क्रमशः मोक्ष या मुक्तावस्था को प्राप्त कराना है। 1.5.4 जीवन-प्रबन्धन के साधक एवं बाधक तत्त्व
प्रत्येक व्यक्ति को बदलते हुए परिवेश में जीवन जीना होता है। इस परिवेश में अलग-अलग व्यक्ति, वस्तु या परिस्थितियाँ होती हैं, जिनके साथ व्यक्ति का संयोग होता है अथवा जिनके साथ व्यक्ति संयोग करना चाहता है। जैनदर्शन में इन तत्त्वों को तीन भागों में विभक्त किया गया है -
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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