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मानव अपनी योग्यता का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार से उपयोग कर सकता है। इन उपयोगों में भी अनेक विविधताएँ होती हैं और इसी कारण मानव अनेक प्रकार की जीवनशैलियों से जीता है। जैनाचार्यों ने सदैव नकारात्मक जीवनशैली को छोड़कर सकारात्मक जीवनशैली को अपनाने पर बल दिया है। वस्तुतः, यही जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य भी है।
प्रत्येक मानव जीवन-प्रबन्धन के लिए समर्थ होने पर भी अपने जीवन को प्रबन्धित नहीं कर पाता। इसका कारण यह है कि वह 'प्रबन्धन' के सम्यक स्वरूप से अनभिज्ञ होता है। वह यह नहीं समझ पाता कि प्रबन्धन का महत्त्व सार्वकालिक, सार्वभौमिक एवं सार्वजनीन है। वास्तव में प्रबन्धन तो वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति साधक , साधन और साध्य को एक सूत्र में पिरोकर सफलता की प्राप्ति कर सकता है। इस हेतु उसे नियोजन, संगठन, संसाधन, निर्देशन, समन्वयन एवं नियन्त्रण रूप प्रबन्धन-कर्त्तव्यों का सम्यक् क्रियान्वयन करना आवश्यक होता है। साथ ही वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के प्रबन्धन-सिद्धान्तों का सम्यक् निर्वहन भी करना होता है। उसे प्रबन्धन को एक कला, विज्ञान, प्रणाली एवं सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में प्रयोग करना होता है।
व्यक्ति जब प्रबन्धन को केवल व्यावसायिक या औद्योगिक पक्ष तक सीमित नहीं रखता हुआ, जीवन के सम्पूर्ण पहलुओं के लिए प्रयोग में लाता है, तब जीवन-प्रबन्धन अस्तित्व में आता है। जीवन-प्रबन्धन की आवश्यकता प्रायः सभी को है, क्योंकि वर्तमान युग में प्रायः सभी का जीवन अस्त-व्यस्त एवं त्रस्त है। व्यक्ति जीवन में सुख, शान्ति और आनन्द चाहता है, किन्तु अप्रबन्धित जीवनशैली होने से वह अभीष्ट फल की प्राप्ति नहीं कर पाता। जीवन-प्रबन्धन की प्रक्रिया को अपनाकर वह न केवल जीवन-निर्वाह, अपितु जीवन-निर्माण (आत्म-कल्याण) के लक्ष्य को भी सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है।
जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य वास्तव में व्यक्ति को काल्पनिक ऊँचाइयों के शिखर तक पहुँचाना नहीं, अपितु वास्तविकता की धरातल पर सुखी जीवन जीने की कला सिखाना है। इसका परम आदर्श मोह और क्षोभ से मुक्त मोक्ष-दशा की प्राप्ति कराना है। इस हेतु जीवन-प्रबन्धन की मूल प्रक्रिया यही है कि व्यक्ति उचित लक्ष्य का निर्धारण करे, लक्ष्य प्राप्ति में सहयोगी साधक-तत्त्वों को ग्रहण करे, लक्ष्य-प्राप्ति में अवरोधरूप बाधक-कारणों का त्याग करे और अन्ततः जीवन-लक्ष्य की संप्राप्ति करे।
जीवन-प्रबन्धन की सबसे बड़ी बाधा है - जीवन का जटिल होना। इसे सरलीकृत करने के लिए जीवन के विविध पहलुओं का विभागीकरण कर उनका पृथक्-पृथक प्रबन्धन करना आवश्यक है। इतना ही नहीं, उनमें पारस्परिक समन्वय स्थापित करना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतः धैर्य और विवेक का समावेश करते हुए व्यक्ति को जीवन-प्रबन्धन की प्रक्रिया में चरण-दर-चरण आगे बढ़ना ही उचित है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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