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2.2 जैनआचारमीमांसा का उद्देश्य
___ जगत् में कोई भी प्रवृत्ति निष्प्रयोजन नहीं होती है। कहा भी जाता है – 'प्रयोजनं विना मन्दोऽपि न प्रवर्तते' अर्थात् उद्देश्य के बिना सामान्य व्यक्ति भी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। अतः प्रश्न उठता है कि जैनआचारमीमांसा का उद्देश्य क्या है?
जैनआचारमीमांसा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को सम्यक् बनाना है अर्थात् व्यक्ति की जीवनशैली का सम्यक् प्रबन्धन करना है। ज्ञानमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा जीवन के सैद्धान्तिक-पक्षों का निर्देश देती है, जबकि आचारमीमांसा जीवन के प्रायोगिक-पक्षों को प्रतिपादित करती है। आचारमीमांसा व्यक्ति की जीवनशैली को आधार बनाकर जीवनोपयोगी आचरण का पथप्रदर्शन करती है। इससे जैनदर्शन में सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्षों का समन्वय एवं सन्तुलन हो जाता है। ____ मनुष्य के समक्ष अपने साध्य (Goal) एवं साधन (Means) के बारे में अस्पष्टता होती है, जिसे स्पष्ट करना जैनआचारमीमांसा का प्राथमिक उद्देश्य है। मनुष्य यह विचार करता है कि वह कौन है, कहाँ से आया है, उसके जीवन का उद्देश्य क्या है और उस उद्देश्य की प्राप्ति कैसे की जा सकती है। वह यह चिन्तन भी करता है कि वह कैसे चले, कैसे खड़े रहे, कैसे बैठे, कैसे भोजन करे, कैसे बोले और कैसे सोए इत्यादि। ये सभी प्रश्न व्यक्ति के जीवन-प्रबन्धन से सम्बन्धित हैं, जिनका समाधान देना जैनआचारमीमांसा का उद्देश्य है। उल्लेखनीय है कि ये समाधान ही व्यक्ति को उचित लक्ष्य एवं उसकी प्राप्ति के उचित मार्ग से जोड़ते हैं।
__ जैनआचारमीमांसा जीवन के अनन्तर (Short Term) एवं परम्पर (Long Term) दोनों प्रकार के साध्यों को निर्देशित करती है। जहाँ इसका उद्देश्य ‘परम्पर-साध्य' के रूप में मोक्षदशा को प्राप्त कराना है, वहीं 'अनन्तर–साध्य' के रूप में वर्तमान जीवन को तनाव-मुक्त बनाकर सुख, शान्ति एवं आनन्द की प्राप्ति कराना है।"
___ मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक इकाई के रूप में वह समाज में रहता और जीता है, अतः उसके सामने यह प्रश्न उठता है कि उसका सामाजिक व्यवहार कैसा हो? इस प्रश्न का सम्यक् समाधान देना भी जैनआचारमीमांसा या जीवनप्रबन्धनशास्त्र का कार्य है। उसका उद्देश्य है कि जीवन जीने की ऐसी प्रणाली विकसित हो, जिसमें स्वार्थ , परार्थ एवं परमार्थ का सन्तुलन हो। आशय यह है कि स्वहित एवं परहित एक-दूसरे के लिए बाधक न बनें।
मनुष्य सामान्यतया बाह्य प्रवृत्तियों को ही आचार का मापदण्ड मानता है। अतएव सर्वत्र बाह्य व्यवहार को ही सुधारने की प्रेरणा दी जाती है, परन्तु जैनआचारमीमांसा आभ्यन्तर भावों एवं बाह्य व्यवहारों दोनों को परिष्कृत करने पर समान बल देती है। इस प्रकार, व्यक्ति के आचरण को मूल से सुधारना जैनआचारमीमांसा या जैन जीवन-प्रबन्धन का प्रधान उद्देश्य है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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