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आधार है। व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान भले ही उसके आचार से होती हो, किन्तु उसके आचार का आधार उसका दृष्टिकोण या मान्यता होती है। वस्तुतः, जीवन और जगत् के प्रति यह दृष्टिकोण ही दर्शन कहलाता है। यदि दर्शन या दृष्टिकोण सही नहीं है, तो आचार भी सही नहीं हो सकता। कहा भी गया है -
दसणभट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स पत्थि णिव्वाणं ।
सिज्झंति चरियाभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।। अर्थात् जो आत्मा दर्शन से भ्रष्ट होती है, वह निश्चित रूप से भ्रष्ट है, उसका निर्वाण (मोक्ष) भी नहीं होता। भले ही, एक बार चारित्र से भ्रष्ट आत्मा सिद्धावस्था की प्राप्ति कर सकती है, किन्तु दर्शन से भ्रष्ट आत्मा कभी नहीं।
अभेद दृष्टि के आधार पर दर्शन एवं आचारशास्त्रों में तादात्म्य है, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह कहा जा सकता है कि दर्शन ही आचार है एवं आचार ही दर्शन है। दोनों एकरूप हैं, अलग-अलग नहीं। जैनदृष्टि का भी यही अभिमत है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार - “जैन दार्शनिकों ने दर्शन एवं आचार को अलग-अलग देखा अवश्य है, किन्तु अलग-अलग किया नहीं। कारण यह है कि ये एक-दूसरे से इतने अधिक एकमेक हैं कि इन्हें अलग किया ही नहीं जा सकता।11
'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' यह सूत्र इसी बात की पुष्टि करता है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की एकता (अभेदता) ही मोक्षमार्ग है। यहाँ दर्शन एवं आचार की एकता का स्वर गूंजा है। आचारांगसूत्र में भी जब-जब ‘सम्मत्तदंसी13 शब्द का प्रयोग किया गया है, तब-तब वह ऐसे साधक की ओर इशारा करता है, जो सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न सम्यग्दृष्टा है। यहाँ सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र का एकीकृत रूप ही 'सम्मत्तदंसी' का स्वरूप है। इस प्रकार, दर्शन एवं आचार का अभेद सम्बन्ध है।
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अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन
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