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(10) धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन - धर्म का अर्थ है – नैतिकता। अतः वह पुरूषार्थ, जिसके माध्यम से व्यक्ति अशुभाचार से निवृत्त होकर शुभाचार में प्रवृत्त होता है, धर्म-पुरूषार्थ कहलाता है। यह पुरूषार्थ आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों ही जीवन रूपों में उपयोगी है। धर्म-पुरूषार्थ यदि व्यवहारीजन के लिए नैतिकता एवं सदाचारिता का माध्यम है, तो आत्मार्थीजन के लिए मुमुक्षुता और वैराग्य का उत्तम साधन है। वस्तुस्थिति यह है कि व्यक्ति धर्म के मर्म तक नहीं पहुंच पाता और इसीलिए धर्म-पुरूषार्थ करने का उचित परिणाम भी उसे प्राप्त नहीं हो पाता। इस प्रकार उसमें न तो सदाचारिता आ पाती है और न मुमुक्षुता या वैराग्य ही। अतः धर्म-प्रबन्धन या धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन की नितान्त आवश्यकता है। इससे ही व्यक्ति धर्म की वैज्ञानिक गहनता को समझ सकता है। यह धर्म-प्रबन्धन वस्तुतः धार्मिक अंधविश्वासों और आडम्बरों से रहित एक विशुद्ध विचारधारा है। इसकी विस्तृत चर्चा अध्याय बारह में की जाएगी। (11) आध्यात्मिक-विकास (मोक्ष)-प्रबन्धन - मोक्ष का अर्थ है - 'मुक्ति'। वस्तुतः, जहाँ इच्छाओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का बन्धन है, वहाँ दुःख और तनाव अवश्यंभावी हैं और इसका तात्पर्य यह है कि मुक्त-दशा में ही प्रसन्नता और आनन्द की प्राप्ति सम्भव है। जैन-जीवन-प्रबन्धन की प्रक्रिया का परम साध्य भी यही अवस्था या दशा है एवं तद्हेतु किया गया पुरूषार्थ मोक्ष-पुरूषार्थ कहलाता है।253 जैनदर्शन के अनुसार, समस्त पर-पदार्थों से भिन्न और निज-शुद्धात्मस्वरूप से अभिन्न आत्मिक अवस्था (परिणति) की प्राप्ति के लिए किया गया पुरूषार्थ मोक्ष-पुरूषार्थ है। जैसे-जैसे मोक्ष-पुरूषार्थ में प्रगति होती है, वैसे-वैसे आत्म-स्थिरता और तज्जन्य आत्मिक-आनन्द में भी अभिवृद्धि होती जाती है। इस पुरूषार्थ की चरम स्थिति मोक्ष है।
इस कलिकाल में मोक्षमार्ग के साधन सुलभ नहीं हैं, जिससे अक्सर व्यक्ति पथभ्रष्ट भी हो जाया करता है। आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम के पुरूषार्थ से शनैः-शनैः निवृत्त होता हुआ मोक्ष-प्राप्ति का सम्यक् प्रयत्न करता जाता है। इसकी भी विस्तृत चर्चा अध्याय तेरह में की जाएगी।
इस प्रकार, जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत जीवन को सुव्यवस्थित करने वाले विविध पहलुओं का प्रबन्धन होता है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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