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(6) पर्यावरण-प्रबन्धन - व्यक्ति के चारों ओर व्याप्त परिवेश पर्यावरण कहलाता है। आज पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ विश्व की ज्वलन्त समस्याएँ हैं, जिनका सम्बन्ध प्राणिमात्र से है। मानव पर्यावरणीय समस्याओं को बढ़ाने में सबसे अहम भूमिका निभा रहा है। यदि मानव अपने क्रियाकलापों पर उचित नियन्त्रण करे, तो ही इस विश्वव्यापी समस्या का समाधान सम्भव है। जैनधर्मदर्शन एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक विचारधारा है। इसके सिद्धान्तों से न केवल आत्महित होता है, अपितु पर्यावरण सम्बन्धी चिन्ताओं का निराकरण भी होता है। इन सिद्धान्तों का जीवन में प्रयोग ही पर्यावरण-प्रबन्धन कहलाता है, जिसका वर्णन अध्याय आठ में किया जाएगा। यह ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में पर्यावरण के अन्तर्गत मुख्यतया गैर-मानवीय परिवेश को ही शामिल किया गया है। (7) समाज-प्रबन्धन – मनुष्यों का समूह ‘समाज' कहलाता है, जबकि पशुओं का समूह ‘समज'। दोनों में यह अन्तर है कि मनुष्यों का समूह व्यक्तिगत और सामूहिक विकास का एक साधन है, जबकि पशुओं के समूह में इस विकास की पहल का ही अभाव है। जैनधर्मदर्शन ने इसीलिए एकाकी और सामूहिक दोनों ही जीवन-पद्धतियों का समन्वयात्मक निर्देश किया है, किन्तु मानव की यह विडम्बना है कि वह परस्पर सहकारिता और बन्धुत्व की भावना से जी नहीं पाता और परिणामस्वरूप समाज, परिवार आदि में क्लेश और कलह की अभिवृद्धि होती है। अतः समाज-प्रबन्धन आवश्यकता बन जाता है। इसकी चर्चा अध्याय नौ में की जाएगी। (8) अर्थ-प्रबन्धन – 'अर्थ' का आशय है - वस्तु ।248 अतः उपभोग की वस्तुओं का ग्रहण एवं संचय करने वाले समग्र प्रयत्न या उद्यम 'अर्थ-पुरूषार्थ' हैं। व्यक्ति की अनेकानेक भौतिक आवश्यकताएँ होती हैं, जैसे – पैसा, गृह, सम्पत्ति आदि। इनकी प्राप्ति के लिए किया गया पुरूषार्थ अर्थ-पुरूषार्थ कहलाता है। 49 सामान्यतया इस अर्थ-पुरूषार्थ का साध्य काम-पुरूषार्थ होता है, क्योंकि व्यक्ति कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिए अर्थ-पुरूषार्थ से जुड़ता है। अतः कहा जा सकता है कि 'अर्थ' साधन है और ‘भोग' साध्य है।250 जैनआचारमीमांसा में 'अर्थ' और 'भोग' दोनों के सन्दर्भ में परिग्रह-परिमाण और भोगोपभोग-परिमाण करने का सदुपदेश दिया गया है।251 अर्थ-प्रबन्धन वस्तुतः अर्थ-पुरूषार्थ के व्यवस्थितीकरण की प्रक्रिया है। इसकी विशेष चर्चा अध्याय दस में की जाएगी। (७) भोगोपभोग-प्रबन्धन - संचित या एकत्रित वस्तुओं का उपयोग करने हेतु किया गया प्रयत्न या उद्यम ही भोग या काम का पुरूषार्थ कहलाता है। भ्रमित मानव वस्तुतः भौतिक सुख को ही यथार्थ सुख मान लेता है और इसकी प्राप्ति के लिए ऐन्द्रिक-विषयों का सेवन करता रहता है, यही भोग या काम का पुरूषार्थ है।252 जैन-जीवन-दृष्टि में भोग का पुरूषार्थ वस्तुतः दलदल के समान है, जिसमें भोगी पुरूष फँसता ही चला जाता है और अपने जीवन को नष्ट कर देता है। भोग-प्रबन्धन भोगवृत्ति को शनैः-शनैः सीमित करने की एक प्रक्रिया है। इससे व्यक्ति की जीवनशैली संयमित होती जाती है। इसकी विस्तृत चर्चा अध्याय ग्यारह में की जाएगी।
अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ
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