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यद्यपि प्राचीन जैन साहित्य में इनके सन्दर्भ में विस्तृत व्याख्याएँ उपलब्ध नहीं हैं, तथापि इनकी मान्यता जैनदर्शन में प्राचीनकाल से ही सुप्रतिष्ठित है। ज्ञानार्णव की पंक्तियाँ इसे सुस्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं237 -
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः ।
पुरूषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः ।। ___ अर्थात् प्राचीनकाल से महर्षियों के द्वारा चार प्रकार के पुरूषार्थ बताए गए हैं। सिर्फ जैन ही नहीं, अपितु सभी भारतीय-दर्शनों में इसकी अवधारणा प्राचीनकाल से ही मौजूद है। यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू-दर्शन में औपनिषद काल के पूर्व तक धर्म, अर्थ एवं काम – इस 'त्रिवर्ग व्यवस्था' का ही निर्देश मिलता है और उपनिषदों में मोक्ष यानि 'अपवर्ग' को जोड़ दिया गया है, तथापि यह सर्वथा सत्य नहीं है।238 औपनिषद काल से पूर्व भी 'मोक्ष' की मान्यता थी और इसीलिए आरम्भिक ग्रन्थों, जैसे - महाभारत, रामायण आदि में भी मोक्ष का उल्लेख मिलता है। यह कहा जा सकता है कि सामान्य गृहस्थ जीवन में आचरणीय न होने से 'मोक्ष' का उल्लेख कई सामाजिक ग्रन्थों में नहीं किया गया है।239 कुल मिलाकर, यह स्वीकारना आवश्यक होगा कि पुरूषार्थ चतुष्टय की अवधारणा प्राचीन भारतीय दर्शनों की एक सर्वसम्मत मान्यता रही है। इससे ही इसकी प्रामाणिकता, महत्ता एवं उपयोगिता का संकेत मिलता है। 1.7.2 पुरूषार्थ-चतुष्टय : सामान्य परिभाषा
भारतीय विचारकों ने सामान्य रूप से पुरूषार्थ-चतुष्टय की निम्न परिभाषाएँ दी हैं?40 -- (1) धर्म – वह पुरूषार्थ जिससे स्व-पर का कल्याण होता हो, व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होता हो एवं सामाजिक जीवन का निर्वाह सुचारू रूप से होता हो, धर्म-पुरूषार्थ कहलाता है। (2) अर्थ - जीवन-निर्वाह के लिए भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होती है, अतः इनकी पूर्ति हेतु साधन जुटाना ही अर्थ-पुरूषार्थ है। (3) काम - जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जुटाए गए साधनों का उपभोग करना काम-पुरूषार्थ है। दूसरे शब्दों में, ऐन्द्रिक विषयों का भोग करना काम-पुरूषार्थ है। (4) मोक्ष - दुःख के कारणों को जानकर उनसे पूर्ण मुक्त होने के लिए किया गया पुरूषार्थ मोक्ष-पुरूषार्थ है। इसमें दैहिक वासनाओं एवं कामनाओं से ऊपर उठने और आत्म-स्वातन्त्र्य का प्रयत्न करने की प्रमुखता होती है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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