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1.7 जीवन–प्रबन्धन में भारतीय-दर्शन के पुरूषार्थ-चतुष्टय
प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति में जीवन का सम्यक् लक्ष्य एवं उसकी प्राप्ति के उपाय के रूप में पुरूषार्थ चतुष्टय की अवधारणा प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय रही है। जहाँ यह हिन्दू-दर्शन की आधारशिला है, वहीं जैन, बौद्ध आदि दर्शनों में भी इसके महत्त्व को नकारा नहीं गया है। 232 मेरी दृष्टि में, यह वह गहन एवं उपयोगी अवधारणा है, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्यक् जीवन-लक्ष्य का निर्धारण, उसकी प्राप्ति के उपायों और विविध उपायों के मध्य उचित सामंजस्य स्थापित करने का मार्गदर्शन प्रदान करती है। इसके आधार पर व्यक्ति दिग्मूढ़ता की स्थिति से उबरकर सम्यक् दिशा एवं दशा की संप्राप्ति आसानी से कर सकता है। इससे किंकर्तव्यविमूढ़-सी दुविधामय स्थिति समाप्त हो जाती है और अपने हित-अहित, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, हेय-उपादेय एवं साध्य-साधन का बोध सहज हो जाता है। 1.7.1 पुरूषार्थ क्या है?
पुरूषार्थ से सामान्यतः दो अर्थ अभिप्रेत हैं233 – 1) पुरूष का प्रयोजन और 2) पुरूष के लिए करणीय।
प्रथम अर्थ पुरूष (व्यक्ति) के साध्य को परिलक्षित करता है और इसीलिए आर.सी.पाठक ने पुरूषार्थ का आशय बताया है 34 – The object of man's creation & existence | इस दृष्टि से, साध्य , लक्ष्य , प्रयोजन, उद्देश्य आदि पुरूषार्थ के वाच्य हैं।
द्वितीय अर्थ पुरूष के द्वारा साध्य-प्राप्ति के लिए करणीय प्रयत्न अर्थात् साधन को परिलक्षित करता है। अष्टशती में कहा भी गया है – 'पौरूषं पुनरिह चेष्टितम्' अर्थात् चेष्टा करना ही पुरूषार्थ है।235 इस दृष्टि से प्रयत्न, परिश्रम, प्रयास, उद्यम, उद्योग, वीर्य, बल, पौरूष, चेष्टा आदि पुरूषार्थ के ही समानार्थी हैं। जैन–परम्परा में यह दूसरा अर्थ तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रचलित है।
प्रत्येक प्राणी प्रतिसमय जो भी चेष्टा करता है, वह उसका पुरूषार्थ है। यह पुरूषार्थ (वीर्य) मूलतः एक आत्मिक-शक्ति है और इसीलिए प्राणी का स्वाभाविक गुण भी है। यही कारण है कि कोई भी प्राणी कभी भी पुरूषार्थ से रिक्त नहीं हो सकता।
मनुष्य का जीवन बहुआयामी है, जिसके अनेकानेक पक्ष हैं। अतः वह लौकिक और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में पुरूषार्थ करने में समर्थ होता है। इन दोनों क्षेत्रों के आधार पर सभी भारतीय दर्शनों ने 'पुरूषार्थ' को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया है – 1) धर्म 2) अर्थ 3) काम 4) मोक्ष ।
इन चारों पुरूषार्थों का सुसमन्वय किए बिना एक सामान्य आदमी के जीवन का सन्तुलित, समग्र और सुव्यवस्थित विकास नहीं हो सकता और जीवन निष्फल हो जाता है।
अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ
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