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(ख) बाह्य साधन-प्रबन्धन – बाह्य साधन-प्रबन्धन से हमारा आशय उन साधनों के प्रबन्धन से है, जो साधक को बाह्य परिवेश से प्राप्त होते हैं। ये बाह्य-साधन दो प्रकार के होते हैं - गैर-मानवीय (पर्यावरण) और मानवीय (समाज) तथा इनका प्रबन्धन बाह्य-साधन-प्रबन्धन है।
इसके अन्तर्गत पर्यावरण-प्रबन्धन एवं समाज-प्रबन्धन आते हैं। (3) साध्य-प्रबन्धन - साध्य का अर्थ है – लक्ष्य या उद्देश्य । निशीथ भाष्य में भी कहा गया है कि कार्य के दो रूप हैं – साध्य और असाध्य । जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह केवल साध्य को साधने का प्रयत्न करे, न कि असाध्य को, क्योंकि असाध्य को साधने में व्यर्थ का क्लेश ही होता है और कार्य भी सिद्ध नहीं हो पाता।
व्यक्ति का चरम साध्य (Ultimate Aim) परम आनन्द की प्राप्ति करना है। इस साध्य की प्राप्ति के लिए ही वह विविध प्रयत्न या उद्यम करता है, जिसे पुरूषार्थ कहा जाता है। हरिभद्रसूरि के अनुसार, ये पुरूषार्थ चार प्रकार के होते हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें धर्म, अर्थ और काम - ये तीन पुरूषार्थ साध्य रूप भी होते हैं और अपने अग्रिम पुरूषार्थ के लिए साधन रूप भी, किन्तु मोक्ष पुरूषार्थ तो केवल साध्यरूप ही होता है।42 इन चारों का प्रबन्धन साध्य-प्रबन्धन कहलाता है।
इसके अन्तर्गत अर्थ-प्रबन्धन, भोगोपभोग-प्रबन्धन, धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन और आध्यात्मिक-विकास (मोक्ष)-प्रबन्धन आते हैं।
इन तीनों विभागों (साधक, साधन एवं साध्य) में व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ सकारात्मक भी हो सकती हैं और नकारात्मक भी। अतः इनका सम्यक् प्रवर्तन एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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