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हुआ
। अतः किसी अपेक्षा से जैविक - कर्त्तव्य की तुलना में आध्यात्मिक - कर्त्तव्य अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
जैविक - कर्त्तव्य का निर्वाह करना व्यक्ति की विवशता है, लेकिन आध्यात्मिक कर्त्तव्यों का पालन करना व्यक्ति की परम आवश्यकता है । जीवन - प्रबन्धक जैविक - कर्त्तव्य रूपी साधन को माध्यम बनाकर आध्यात्मिक - कर्त्तव्य रूपी साध्य की प्राप्ति का प्रयत्न करता है । अतः जीवन - प्रबन्धन का यह लक्ष्य है कि वह जीवन में जैविक और आध्यात्मिक कर्त्तव्यों में परस्पर समन्वय करे, जिससे उसका जीवन अधिकाधिक सुव्यवस्थित और आनन्दमय होता जाए ।
व्यक्ति को अपने जैविक और आध्यात्मिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करना आवश्यक है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब उसकी जीवनशैली सुव्यवस्थित हो। यह जीवनशैली किस प्रकार से सुव्यवस्थित की जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है, क्योंकि अक्सर व्यक्ति अपनी अव्यवस्थित और दोषपूर्ण जीवनशैली को ही सही मानता रहता है, जिसे जैनधर्मदर्शन में मिथ्यात्व ( गलत मान्यता ) कहा गया है । अतः मेरी दृष्टि में, जीवन - प्रबन्धन के तीन उद्देश्य और भी हैं, जिनकी प्राप्ति कर व्यक्ति अपनी जीवनशैली को सुव्यवस्थित बना सकता है और जैविक तथा आध्यात्मिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करता हुआ अपने परम - साध्य रूप 'मोक्ष' की प्राप्ति कर सकता है। ये उद्देश्य हैं
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1) जीवन की समग्रता
2) जीवन की सन्तुलितता
3) जीवन की समन्वयता
1) जीवन की समग्रता जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य जीवन की समग्रता अर्थात् जीवन का बहु–आयामी विकास है (Multidimensional Development ) । वस्तुतः, जीवन के अनेकानेक आयाम हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में कुशलता (Perfection) प्रदान करने की आवश्यकता होती है। ये परिस्थितियाँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। नकारात्मक परिस्थितियों के प्राप्त होने पर अक्षम व्यक्ति पलायित या पराजित हो जाता है, जबकि जीवन - प्रबन्धन के माध्यम से बहुआयामी व्यक्तित्व का विकास करने वाला व्यक्ति समस्याओं का समाधान खोज लेता है। वह जैनधर्मदर्शन पर आधारित अनैकान्तिक जीवनशैली के माध्यम से जीवन की वैचारिक और व्यावहारिक सभी समस्याओं का निवारण कर लेता है ।
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2) जीवन की सन्तुलितता - जीवन के विविध पक्षों के मध्य उचित सन्तुलन होना आवश्यक है। जीवन - प्रबन्धन 'अतिवाद' और 'अल्पवाद' का विरोधी तथा 'औचित्यवाद' का पक्षधर है। किस पक्ष या विभाग हेतु कितना समय कितनी ऊर्जा, कितनी बुद्धि, कितने साधन, कितने कौशल आदि का प्रयोग करना होगा, इसकी उचितता का विवेक होना ही जीवन की सन्तुलितता है । 3) जीवन की समन्वयता जीवन के विविध आयामों में उचित समन्वय होना चाहिए। इससे इन आयामों के लिए किए जा रहे प्रयत्नों में अन्तर्विरोध नहीं होता, बल्कि परस्पर सहयोग मिलता
है । कहावत भी है
एक और एक मिलकर ग्यारह हो जाते हैं ।
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अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ
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