________________
है कि सदसद् विवेक का नाश, हेय-उपादेय बुद्धि का अभाव, अज्ञान, विपरीत बुद्धि , मूढ़ता, चित्त की व्याकुलता, मिथ्यात्व तथा कषाय-विषय आदि की अभिलाषा, यह सब मोह है। दूसरे शब्दों में कहें, तो असत्य में सत्य की कल्पना या भ्रम ही मोह है। जब जीव स्व-पर के सन्दर्भ में भ्रमित या उन्मत्त होकर जीता है, तब उसकी मान्यता, उसका ज्ञान और उसका आचरण मिथ्या होता है और इसे ही मोह दशा कहते हैं। आध्यात्मिक साधना के माध्यम से जैसे-जैसे जीव मोह पर विजय प्राप्त करता जाता है, वैसे-वैसे उसकी आत्मिक-शान्ति में अभिवृद्धि होती जाती है और जब मोह का पूर्ण क्षय हो जाता है, तब चरम आत्मिक-शान्तिरूप मोक्ष दशा प्रकट हो जाती है, जिसे जीवन-मुक्ति या निर्वाण की दशा भी कहा जाता है। इस दशा में विशिष्ट और अनिर्वचनीय आत्मिक-आनन्द की अनुभूति होती है, जिसे जैनाचार्यों ने परम, अनन्त, अव्याबाध, सहज, स्वाभाविक, निराकुल, निर्भय, निर्ममत्व, निश्चल, निश्छल , निष्काम, अपराश्रित, अनुत्तर, अनुपम, अप्रयासी, अविचल आदि विशेषणों से विभूषित किया है।226
जैन जीवन-प्रबन्धन का परम साध्य तो एकमात्र मोक्ष (मुक्त) अवस्था ही है, लेकिन इस कलिकाल में मोक्ष का सम्यक् और तीव्र पुरूषार्थ करने वाले विरल हैं। श्रीमद्राजचन्द्र को भी कहना पड़ा21 – “वर्तमान आ काळमां मोक्षमार्ग बहुलोप"। अतः मोक्ष या आत्म-कल्याण की पात्रता और योग्यता का विकास करना भी जैन-जीवन-प्रबन्धन का एक उद्देश्य है। जीवन के विविध कर्त्तव्यों का उचित निर्वाह किए बिना आत्म-कल्याण की पात्रता अथवा आत्म-कल्याण के पुरूषार्थ में निरन्तरता सम्भव नहीं है। अतः इन कर्तव्यों का सफल निर्वहन भी जीवन-प्रबन्धन का एक प्राथमिक उद्देश्य है।
ये कर्त्तव्य मूलतः दो प्रकार के हैं - 1) जैविक कर्तव्य
2) आध्यात्मिक कर्तव्य 1) जैविक कर्त्तव्य - ये वे कर्त्तव्य हैं, जिनके माध्यम से व्यक्ति अपनी दैहिक, पारिवारिक,
व्यावसायिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। दूसरे शब्दों में, वे कार्य जो जीवन निर्वाह के लिए उपयोगी हैं, जैविक कर्त्तव्य कहलाते हैं। इनके माध्यम से व्यक्ति जीवनयापन के
साधनों को जुटाता है और आवश्यकतानुसार एकत्रित साधनों का उपयोग करता है। 2) आध्यात्मिक कर्त्तव्य - ये वे कर्त्तव्य हैं, जिनके माध्यम से व्यक्ति आत्मशान्ति और आत्मपूर्णता
की प्राप्ति करता है। इन्हें आत्म-कल्याण या जीवन निर्माण सम्बन्धी कर्तव्य भी कहते हैं। इनका निर्वहन करता हुआ व्यक्ति भौतिक-सुख (सुखाभास) के प्रति अनासक्त होकर क्रमशः आत्म-अनुसंधान, आत्म-ज्ञान और आत्मरमणता की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। वह अन्ततः आत्मिक-आनन्द में लीन होता जाता है और उसकी इस चरम अवस्था को ही 'मोक्ष' कहा जाता है, जो जीवन–प्रबन्धन का भी परम–साध्य (Ultimate Goal) है। इस प्रकार आध्यात्मिक कर्त्तव्य वे आत्म-लक्षी प्रयास हैं, जिनमें तनाव और दुःखों से पूर्ण मुक्त होने का समाधान छिपा
64
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
64
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org