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समन्वय के अन्तर्गत निम्नलिखित उपकार्यों का समावेश होता है - 1) कर्त्तव्य और अधिकार की स्पष्टता (Clarity of Authority & Responsibility) 2) निर्देशन की एकता (Unity of Direction) 3) आदेश की एकता (Unity of Command) 4) प्रभावी संप्रेषण (Effective Communication) 5) प्रभावी नेतृत्व (Effective Leadership)
जैनदर्शन में समन्वयात्मक जीवनशैली पर बहुत बल दिया गया है। इसका आधारभूत सिद्धान्त है - अनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद वस्तुतः एक-दूसरे की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर जीवन-व्यवहार करने की कला सिखाता है। इसके उत्कृष्ट उदाहरण आचार्य होते हैं, जो स्वयं आचार, ज्ञान, शारीरिक-स्वस्थता, वचन , वांचना, मति (बुद्धि), प्रयोगमति एवं संग्रहपरिज्ञा (धर्म-प्रभावना) – इन आठ योग्यताओं में निपुण होते हैं। इन सद्गुणों के बल पर वे अपने कर्तव्यों और अधिकारों का सम्यक् निर्वाह करते हुए सम्पूर्ण संघ के सदस्यों की सुरक्षा एवं विकास भी करते हैं। 176 इस प्रकार अनेकान्तवाद का सिद्धान्त यदि प्रयोग में लाया जाए, तो निश्चित रूप से यह व्यक्ति के सामाजिक जीवन को समन्वित करने में सफल हो सकता है। (6) नियन्त्रण (Controlling)
निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु किए जा रहे प्रयासों की जाँच करना तथा यदि उनमें किसी प्रकार की त्रुटि हो, तो उसे दूर करना नियन्त्रण कहलाता है। इस प्रक्रिया में निम्नलिखित उपकार्यों का समावेश होता है178 - 1) पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के सापेक्ष किए गए वास्तविक कार्य का मूल्यांकन करना। 2) निर्धारित लक्ष्य और निष्पादित कार्य के अन्तर को पहचानना। 3) अन्तर को समाप्त करने के लिए सुधारात्मक उपाय करना।
जैनदर्शन में नियन्त्रण को जीवन-प्रबन्धन का अनिवार्य कर्त्तव्य माना गया है। यहाँ स्व और पर दोनों पर नियन्त्रण की बात कही गई है। जहाँ सामाजिक जीवन में भूमिकानुसार पर-नियन्त्रण को स्थान दिया गया है, वहीं आध्यात्मिक जीवन में स्व-नियत्रंण को महत्त्व दिया गया है। यही कारण है कि एक ओर आचार्य का यह कर्त्तव्य है कि वे शिष्यों को संयम और त्याग-तप सम्बन्धी समाचारी का ज्ञान कराएँ तथा शिष्यों में उत्पन्न दोषों का शमन कराएँ, वहीं दूसरी ओर वे अपने संयम गुणों एवं आत्मसमाधि की पूर्णरूपेण सुरक्षा एवं वृद्धि करें। 179 वस्तुतः, जैनदर्शन में पर-नियन्त्रण की अपेक्षा स्व-नियन्त्रण को अधिक महत्त्व दिया गया है। कहा भी गया है, जो अपने पर अनुशासन नहीं रख पाता, वह औरों पर अनुशासन कैसे कर सकता है।' 180 इस आत्म-नियन्त्रण की अपेक्षा से ही प्रतिक्रमण, आलोचना एवं प्रत्याख्यान का निर्देश दिया गया है। यह जीवन-प्रबन्धन के लिए अत्यन्त 48 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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