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(७) केन्द्रीकरण (Centralisation) – संस्था के प्रबन्धन में केन्द्रीकरण की नीति अपनाई जाए अथवा विकेन्द्रीकरण की, इसका निर्णय संस्था के व्यापक हितों, कार्यकर्ताओं की मनोभावनाओं और कार्य की प्रकृति आदि समस्त तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद करना चाहिए। सामान्यतया लघु संस्थाओं में केन्द्रीकरण और बड़ी संस्थाओं में विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाई जाती है, फिर भी इनका अनुपात परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है।201
जैनधर्मदर्शन में संघ के स्थान पर आचार्य पद को ही सर्वोपरि माना गया है और समस्त सत्ता उसमें ही केन्द्रित कर दी गई है। फिर भी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसमें देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर केन्द्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरण दोनों की ही व्यवस्था दी गई है और यह माना गया है कि आचार्य आदि पर भी संघ के निर्णय की बाध्यता बनी रहे। 202 (10) व्यवस्था (Arrangement) – व्यवस्था के सम्बन्ध में फेयॉल ने दो उपसिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं?03 -
1) प्रत्येक वस्तु के लिए एक नियत स्थान हो और उसी स्थान पर वस्तु को रखा जाए। 2) प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक नियत स्थान हो और उसी स्थान पर व्यक्ति की उपस्थिति हो।
जैनग्रन्थों में भी उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त वर्णित हैं। प्रथम उपसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो श्रमणों (उपलक्षण से सभी) के लिए उपकरण सम्बन्धी अनेक कर्तव्य निर्दिष्ट हैं, जैसे - उचित उपकरणों को ग्रहण करना, सुरक्षित स्थान पर रखना, योग्य व्यक्ति को प्रदान करना आदि। आशय यह है कि व्यक्ति उपयोग की वस्तुओं का सम्यक् अवलोकन कर उन्हें उचित स्थान पर स्थापित करे। द्वितीय उपसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में भी जैनदर्शन में अनेक निर्देश मिलते हैं, जैसे - तीर्थंकर परमात्मा के समवसरण में बारह प्रकार की पर्षदाओं (वर्गों) का अपने-अपने नियत स्थान पर बैठना, साधु-साध्वियों का सूत्र-वांचन, अर्थ-वांचन, आहार-ग्रहण, प्रतिलेखना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय एवं रात्रि-विश्राम हेतु मण्डली-रचना करके नियत स्थान पर बैठना,204 साधु-साध्वियों का ज्येष्ठ क्रमानुसार चलना आदि।205 (11) समता (Equity) - अधीनस्थ कार्यकर्ताओं के साथ न्याय और उदारता का व्यवहार हो, जिससे परस्पर सद्भावना और सहयोग का वातावरण दीर्घकाल तक बना रहे।206
यदि हम देखें, तो जैनधर्मदर्शन समता के आधार पर ही खड़ा हुआ है। भगवान् महावीर ने धर्म को व्याख्यायित करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था कि आर्य-जन समता को ही धर्म मानते हैं। 207 वस्तुतः जैनधर्मदर्शन का आदि और अन्त समत्वभाव पर ही आधारित है।
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अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ
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