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★ समाज व परिवार के सदस्यों में पारस्परिक विश्वास की कमी आई है और एक-दूसरे का स्वार्थ
आड़े आ रहा है। बुजुर्गों के प्रति आदर और बालकों के प्रति वात्सल्य में भी कमी आ रही है। ★ सामाजिक कार्यकर्ताओं में पद-लिप्सा की अभिवृद्धि हो रही है, जिससे उनमें संगठन के प्रति निष्ठा में कमी, संगठनात्मक सोच के बजाय विद्रोहात्मक सोच और नकारात्मक कार्यशैली की
अभिवृद्धि हो रही है। ★ परस्पर मैत्री, सहयोग और संवेदनाओं के स्थान पर स्वार्थ, असहयोग, मौकापरस्ती और शुष्कता
की भावना मानव-मन पर हावी हो रही है। ★ आर्थिक विकास के क्षेत्र में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के स्थान पर प्रतिद्वन्द्रिता बढ़ रही है। ★ अनीति और भ्रष्टाचार सामाजिक संस्कृति बन चुके हैं। ★ येन-केन-प्रकारेण पद, प्रतिष्ठा, पैसा और परिग्रह की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य बन चुका है। ★ प्रायः सभी देशों के राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा सुरक्षा पर खर्च हो रहा है, फिर भी विश्वयुद्ध
का भय प्रतिपल मंडरा रहा है।21 ★ आज विश्व के अधिकतर लोग मांसाहारी हो गए हैं। ★ जैसे-जैसे भोग-विलासिता की सामग्रियाँ बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे नए-नए रोगों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। अल्पवय में ही हृदय रोग, मधुमेह, रक्तचाप, एड्स आदि रोगों का होना,
आज कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। ★ मनोरंजन के सस्ते, अनैतिक और अश्लील साधनों की लोकप्रियता बढ़ रही है, जिससे व्यक्ति
का समय और समझ दोनों नष्ट हो रहे हैं। ★ निर्लज्जता ही नहीं, बल्कि अनैतिक यौन सम्बन्ध भी बढ़ रहे हैं। ★ व्यक्ति अपनी उपलब्धियों और वैभव का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन करने में लगा है। ★ विश्व में अवसाद (Depression) से ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, जिनमें से अधिकांश शिक्षित व उच्च पदस्थ भी हैं। यहाँ तक कि दुनिया में सर्वाधिक पागलों की संख्या
अमेरिका जैसे विकसित देश में है। ★ व्यक्ति में अंतरंग तनाव या दबाव बढ़ता ही जा रहा है, जिससे उत्तेजना, चिड़चिडाहट,
तुनकमिजाजी, रोष आदि मानसिक-विकार व्यक्ति के स्वभाव ही बनते जा रहे हैं। ★ सत्संग, सद्विचार और संस्कारों का महत्त्व तेजी से घट रहा है और व्यक्ति नैतिकता और
सदाचार से विमुख होता जा रहा है, इत्यादि ।
उपर्युक्त दुष्परिणामों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस वैज्ञानिक युग में भी वैश्विक , सामाजिक और वैयक्तिक समस्याएँ उग्र होती जा रही हैं। यह निश्चित है कि मनुष्य का पुरूषार्थ सही दिशा में नहीं चल पा रहा है। उसका मार्ग उत्थान का नहीं, बल्कि पतन का है, क्योंकि उसका बौद्धिक और भौतिक विकास वस्तुतः आत्मविनाश की दिशा में ही गतिशील है।
अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ
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