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गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त रहकर अन्य-अन्य अवांछनीय तरीकों से 'अर्थ' और 'भोग' के पुरूषार्थ को साधते हैं और फिर भी चिन्तामुक्त जीवन जीते हुए महसूस होते हैं। यह भी जीने का सही रूप नहीं है, क्योंकि जीवन तो एक प्रतिध्वनि है, जैसा भेजेंगे वैसा ही लौटकर आएगा। जैनपुराणों में श्रीपाल के काका अजितसेन का उदाहरण मिलता है, जिन्होंने राज्य-सुखों की लालसा में अपने भतीजे (राजकुमार श्रीपाल) को मारने का षडयन्त्र रचा एवं उसका राज्य हड़प लिया, किन्तु इसका दुष्परिणाम उन्हें अन्त समय में भोगना पड़ा। अपनी अप्रबन्धित जीवनशैली का बोध होने पर उन्होंने प्रबन्धित जीवन हेतु आत्म-साधना का मार्ग स्वीकार किया।20
ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो एक हद तक अपने जीवन को प्रबन्धित कर लेते हैं। उनका सामान्य जीवन नियमित हो जाता है। वे बाह्य विकास के लिए सजग होते हैं और इस प्रकार नियोजित प्रयास करते हैं कि उन्हें जीवन में समय-समय पर सफलता मिलती जाती है। उस सफलता की खुशी में वे उत्साहित और उल्लसित भावों से जीवन जीते हैं। केवल बाहर की सफलता से निश्चित जीवन को भी समग्रतया प्रबन्धित नहीं कहा जा सकता। यदि उनके जीवन में आत्मिक-विकास से प्राप्त शान्ति नहीं है, तो ऐसे लोग अक्सर अपनी विफलताओं में विकल और चिन्तित हो जाते हैं। अतः इनको प्राप्त होने वाला सुख वास्तविक नहीं, वरन् पराश्रित, अस्थायी और काल्पनिक ही है। इनके जीवन में आत्मिक-विकास और तज्जन्य शान्ति, सुख और आनन्द के लिए कोई स्थान नहीं है।
उपर्युक्त चर्चा के आधार पर इन जीवनशैलियों के दुष्परिणामों पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है। ये दुष्परिणाम विचारवान् व्यक्ति को सोचने के लिए बाध्य कर सकते हैं कि वह जाग्रत हो जाए और स्वयं को नियंत्रित करे तथा स्व–पर हित के लिए सम्यक दिशा में अपना प्रयत्न करे, जिसे जीवन-प्रबन्धन कहते हैं। प्रमुख दुष्परिणामों का वर्णन इस प्रकार है - ★ व्यक्ति के द्वारा अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए संसाधनों (Resources) का भरपूर दोहन करने से
पर्यावरणीय सन्तुलन दिन-पर-दिन बिगड़ता जा रहा है, जिसके कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं, जैसे – प्रदूषण में वृद्धि, वन्य-सम्पदा में हानि, भूजल-स्तर में कमी, ओजोन-परत में छेद, विश्व-ताप-वृद्धि, अतिवृष्टि, अनावृष्टि इत्यादि। मनुष्य दुनिया का सबसे क्रूर प्राणी बनता जा रहा है, जिससे सभी आक्रान्त हैं। गोवंश, हिरण, हाथी, मुर्गी, कबूतर आदि प्राणियों की करोड़ों की संख्या में प्रतिदिन हिंसा हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप कई प्रकार की जड़ी-बूटी, जन्तु, पशु-पक्षी आदि की प्रजातियाँ लुप्त होती जा
रही हैं। ★ स्वयं मनुष्य भी मनुष्य से भयभीत है, क्योंकि आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद आदि के
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के संगठन बन चुके हैं। ★ समाज में नशा-सेवन की प्रवृत्तियों और आपराधिक गतिविधियों में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है। ★ विश्वस्तर पर आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ रही हैं।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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