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(5) प्रबन्धन : बदलते हुए परिवेश में (Management in a Dynamic Environment)
- जीवन और जगत् सतत परिवर्तनशील हैं। अतः प्रबन्धन को हमेशा बदलते हुए परिवेश में अपने निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयत्न करना होता है, जिसके लिए हमेशा सजग रहने की आवश्यकता होती है।
आधुनिक प्रबन्धन-शास्त्र की यह मान्यता है कि प्रबन्धन की आवश्यकता बदलते हए परिवेश में ही होती है और व्यक्ति को इस परिवेश में लक्ष्य का निर्धारण कर प्रबन्धन सम्बन्धी प्रयत्न करना होता है। जैन-दार्शनिकों का भी यह कहना है कि आचार का मार्ग उत्सर्ग (सामान्य) और अपवाद दोनों से मिलकर बनता है।144 जब सामान्य नियम परिवर्तनशील परिस्थितियों में क्रियान्वित किए जाते हैं, तो उन पर परिस्थितियों का दबाव पड़ता है और परिवर्तन के साथ अनुकूलन (Adaptation) ही जैनदृष्टि से प्रबन्धन का सम्यक् लक्ष्य हो सकता है।145 (6) प्रबन्धन की आवश्यकता (Requirement of Management) - प्रत्येक कार्य के प्रत्येक स्तर पर प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि संघीय अथवा वैयक्तिक कार्यों के लिए उत्तरदायी प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में प्रबन्धक ही होता है।146
जहाँ तक प्रबन्धन की आवश्यकता का प्रश्न है, जैन दार्शनिक इससे भी असहमत नहीं हैं। यदि जीवन एक प्रक्रिया है और उस प्रक्रिया को हमें लक्ष्योन्मुखी बनाना है, तो कहीं न कहीं प्रबन्धन की आवश्यकता तो रहेगी ही। जीवन में लक्ष्य का निर्धारण कर उस दिशा में सम्यक् प्रयत्न करना ही प्रबन्धन है और ऐसे प्रबन्धन की आवश्यकता सदैव बनी रहेगी।
इस प्रकार, हम पाते हैं कि आधुनिक एवं जैन दोनों ही दृष्टियों में प्रबन्धन और उसकी विशिष्टताओं को पूर्णतया स्वीकार किया गया है, फिर भी यह कहना होगा कि जैनदर्शन में प्रबन्धकीय दृष्टिकोण अतिव्यापक होकर आत्मलक्षी भी है। 1.4.8 प्रबन्धन के कार्य (Functions of Management)
प्रबन्धन वह प्रक्रिया है, जिसमें अनेक कार्य सम्पादित किए जाते हैं। इन कार्यों के सन्दर्भ में यह माना जाता है कि आधुनिक युग में सर्वप्रथम श्री हेनरी फेयॉल (Henry Feyol) ने इनका प्रतिपादन किया और उसके बाद लूथर गुलिक , कूण्ट्ज, ओ'डोनेल, नाइल्स और डेविस आदि परवर्ती विद्वानों ने भी अपनी-अपनी दृष्टि से इनका उल्लेख किया है।147 फिर भी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्राचीन दर्शनों और विशेषरूप से जैनदर्शन में भी प्रबन्धन के कार्यों का विस्तृत विवेचन मिलता है। इसमें जीवन निर्वाह के साथ-साथ जीवन-निर्माण को भी लक्ष्य में रखकर प्रबन्धन के कार्यों को प्रतिपादित किया गया है, जो जीवन-प्रबन्धन की दृष्टि से भी उपयोगी हैं।
आगे, जीवन-प्रबन्धन के उद्देश्य से आधुनिक तथा जैनदृष्टि को समन्वित करके प्रबन्धन के 40
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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