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विस्तार की व्यवस्था होना आवश्यक है और इसीलिए आचार्य हेमचंद्र का कदाग्रहरहित होने का निर्देश
औचित्यपूर्ण है।163 नियोजन एक सतत प्रक्रिया भी है, क्योंकि यह उद्देश्य प्राप्ति तक चलती रहती है। नियोजन के महत्त्व को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह व्यक्तिविशेष का नहीं, व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है।164 (2) संगठन या व्यवस्था (Organizing)
संगठन वह साधन है, जो नियोजन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों, नीतियों, कार्यविधियों, नियमों और रणनीतियों का क्रियान्वयन करता है।165 यह मानव और भौतिक संसाधनों का इस प्रकार से एकीकरण करता है कि वे समन्वित होकर सृजनात्मक और उत्पादनात्मक प्रक्रियाओं (Constructive & Productive Interrelationship) से जुड़ जाएँ, जिससे निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।
संगठन-प्रक्रिया के अन्तर्गत मुख्यतया निम्नलिखित कार्यों का समावेश होता है166 -
क्रियाओं का निर्धारण करना (Determination of
activities)
क्रियाओं का वर्गीकरण (Classification of activities)
कार्य का आबंटन (Allocation of task)
समन्वयात्मक संबंधों का जाल
मूल्यांकन (Evaluation)
अधिकार प्रदान करना (Delegation of authority) |
(Network of co-ordinatated
interrelationships)
संगठन-प्रक्रिया (Organizational Process) (क) क्रियाओं का निर्धारण (Determination of Activities) - उद्देश्य की प्राप्ति और योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक क्रियाओं का निर्धारण करना संगठनात्मक प्रक्रिया का प्रथम चरण है। इस चरण में सम्पूर्ण कार्यों को क्रियाओं और उपक्रियाओं के रूप में विभाजित किया जाता
(ख) क्रियाओं का वर्गीकरण (Classification of Activities) - इसका आशय समान और सजातीय क्रियाओं को सामूहिक रूप से किसी वर्गविशेष में रखना है। इसके अन्तर्गत एक वर्ग की परस्पर सम्बन्धित क्रियाओं को विभागों एवं क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है। तत्पश्चात् इन विभागीय एवं क्षेत्रीय क्रियाओं को पुनः खण्डों और उपखण्डों में विभक्त किया जाता है, जिससे कार्य का क्रियान्वयन आसान और स्पष्ट हो जाता है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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