________________
उपर्युक्त समस्त चर्चा के आधार पर मेरी दृष्टि में, प्रबन्धन की सार्वभौमिक, सार्वकालिक और सार्वजनीन परिभाषा इस प्रकार हो सकती है
-
प्रबन्धन वह वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रक्रिया है, जो बदलते हुए परिवेश में, जीवन के सम्यक् लक्ष्य का निर्धारण कर, लक्ष्य की सिद्धि के लिए नियोजन, संगठन, संसाधन, निर्देशन, समन्वयन और नियन्त्रण का समुचित प्रयोग कर, साधक - तत्त्वों का सम्यक् उपयोग एवं बाधक - तत्त्वों का सम्यक् निराकरण कर लक्ष्य की प्राप्ति कराता है और अन्ततः जीवन का समग्र विकास करके चरम आत्मिक - शान्ति या समाधान प्रदान करता है ।
1.4.7 प्रबन्धन की विशेषताएँ (Characteristics of Management )
प्रबन्धन की उपर्युक्त अवधारणाओं एवं परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रबन्धन की अनेकानेक विशेषताएँ हैं । प्रस्तुत प्रसंग में आधुनिक एवं जैनदृष्टियों का समन्वय करते हुए इनका वर्णन किया जा रहा है, जो इस प्रकार है -
(1) प्रबन्धन : कर्त्तव्यों का समूह (Management is a Group of Functions) प्रबन्धन वस्तुतः कर्त्तव्यों का एक समूह है, जिसके अन्तर्गत अनेक कार्य करने होते हैं। आधुनिक प्रबन्धन-शास्त्र में मुख्यता से औद्योगिक एवं व्यावसायिक दृष्टि से प्रबन्धन के जिन कर्त्तव्यों का निर्देश किया गया है, वे हैं - नियोजन, संगठन, संसाधन, निर्देशन, समन्वयन एवं नियन्त्रण | 135
जैनआचारमीमांसा की दृष्टि अतिव्यापक है। इसमें जीवन के समग्र प्रबन्धन हेतु प्रबन्धन - कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है। इसमें कर्त्तव्यों के मूलतः दो विभाग किए गए हैं - जैविक एवं आध्यात्मिक । जैविक कर्त्तव्यों का निर्वाह करने के लिए यह कहा गया है कि व्यक्ति 'अर्थ' एवं 'भोग' सम्बन्धी पुरूषार्थ करे, लेकिन अपनी भूमिकानुसार मर्यादापूर्वक करे। इसी प्रकार, आध्यात्मिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करने के लिए यह बताया गया है कि वह 'धर्म' और 'मोक्ष' पुरूषार्थ का सेवन करे। इन कर्त्तव्यों के प्रति सजग होने के लिए जैनाचार्यों ने अलग-अलग प्रकार से प्रेरणा दी है, जैसे- मार्गानुसारी के पैंतीस कर्त्तव्य, श्रावक के इक्कीस गुण, श्रावक के षट्कर्त्तव्य, श्रमण एवं श्रावक के षडावश्यक, श्रावक के बारहव्रत, श्रमण के पंचमहाव्रत इत्यादि । इसके अतिरिक्त दिवस, रात्रि पर्व, चातुर्मास एवं वर्ष सम्बन्धी कर्त्तव्यों का भी सुस्पष्ट निर्देश किया गया है। चूँकि प्रबन्धन की कुशलता उसकी समन्वयशीलता में निहित है, अतः इन कर्त्तव्यों की पारस्परिक सापेक्षता को जैनदर्शन ने अपने स्याद्वाद के सिद्धान्त द्वारा सम्यक् रूप से समझाने का प्रयास किया है। यह अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि इन कर्त्तव्यों में आधुनिक प्रबन्धन - शास्त्रों में निर्दिष्ट उपर्युक्त नियोजन आदि कर्त्तव्यों का समावेश स्वतः हो जाता है। जैन- दार्शनिकों का यह भी कहना है कि हमें अपने विभिन्न कर्त्तव्यों को इस तरह से संयोजित करना चाहिए, जिससे वे एक समग्रता को अभिव्यक्त कर सकें ।
38
Jain Education International
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
—
For Personal & Private Use Only
38
www.jainelibrary.org