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(3) प्रबन्धन की सार्वजनीनता - प्रबन्धकीय विचारधारा की व्यापकता हेतु हमें इस मान्यता में भी परिवर्तन करना होगा कि प्रबन्धक किसी संस्था का कोई अधिकारी अथवा विशेष शिक्षा प्राप्त कोई व्यक्ति ही हो सकता है। वस्तुतः, हमें यह दृष्टिकोण विकसित करना होगा कि एक आम आदमी भी प्रबन्धक हो सकता है, क्योंकि उसे भी अपने कार्य के सफल निष्पादन हेतु प्रबन्धन के सिद्धान्तों का पालन करना होता है। भले ही कोई विद्यार्थी हो या व्यवसायी, गृहिणी हो या गृहस्वामी, सेवक हो या नियोक्ता, कर्मचारी हो या उद्योगपति, बालक हो या वृद्ध , प्रत्येक व्यक्ति को अपने दायित्वों का निर्वाह करने के लिए 'प्रबन्धन-कला' का प्रयोग कहीं ना कहीं करना ही होता है। अतः कहा जा सकता है कि प्रबन्धकीय विचारधारा सार्वजनीन होनी चाहिए। (4) प्रबन्धन में वैयक्तिकता, सामाजिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय - प्रबन्धन को वर्तमान में केवल सामाजिक प्रक्रिया के रूप में माना जा रहा है, किन्तु यह उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में स्वार्थ, परार्थ तथा परमार्थ के बीच सामंजस्य स्थापित करना होता है और इस हेतु उसे जीवन में वैयक्तिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक प्रक्रियाओं को अपनाना होता है, जिसके सफल निर्वहन के लिए प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। यदि हम प्रबन्धन को सिर्फ सामाजिक प्रक्रिया मानें, तो जीवन सन्तुलित नहीं हो सकेगा। अतः हमें इस विचारधारा का विकास करना होगा कि प्रबन्धन वैयक्तिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक – इन तीनों उद्देश्यों के सफल निर्वहन की प्रक्रिया है। (5) प्रबन्धन में साध्य-साधन सन्तुलन - वर्तमान में प्रचलित प्रबन्धकीय विचारधाराएँ साधन को ही साध्य मानकर, प्रबन्धन-सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती हैं, परिणामस्वरूप व्यक्ति का विकास साधनों की प्राप्ति तक ही सीमित हो गया है। जहाँ प्राचीन युग में धन को धर्म और धर्म को मोक्ष का साधन माना जाता था, वहीं आधुनिक युग में धन को साध्य के रूप में देखा जा रहा है। अतः हमें प्रबन्धन की उस प्रक्रिया को अपनाना होगा, जिसमें साधन-प्राप्ति के माध्यम से साध्य-प्राप्ति का उद्देश्य पूर्ण करने का प्रयत्न हो।
इस प्रकार, हमें प्रबन्धन के सन्दर्भ में एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें प्रबन्धकीय अवधारणा का एक सार्वभौमिक, सार्वकालिक और सार्वजनीन स्वरूप प्रस्तुत हो सके और विविध विचारकों के दृष्टिकोणों का एकीकरण भी किया जा सके। आगे, इस हेतु आध्यात्मिक-दृष्टिकोणों और विशेष रूप से जैन-दृष्टिकोण के आधार पर चर्चा की जा रही है। 1.4.6 जैनदर्शन के आधार पर प्रबन्धन की अवधारणा एवं परिभाषा
प्रबन्धन एक कला है, जिसका उपयोग केवल व्यावसायिक या औद्योगिक प्रबन्धन तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, क्योंकि औद्योगिक और व्यावसायिक क्षेत्रों के प्रबन्धन सिर्फ साधनरूप होने से भौतिक सुख रूपी लक्ष्य की प्राप्ति में भले ही सहायक हों, किन्तु ये चरम आध्यात्मिक-शान्ति और आध्यात्मिक-विकास तक नहीं पहुंचा सकते। वस्तुतः, जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के सम्यक् प्रयासों को ही 'प्रबन्धन' कहना चाहिए। जीवन का लक्ष्य तो चैतसिक विकारों और तज्जन्य तनावों से मुक्त होकर
अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ
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