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-अनगार
आनृण्यकारणसुपुत्रफलाः पुरन्ध्यो, धन्यं व्रतत्य इव शाखिनमास्वजन्ते ॥३३॥
जिनके नेत्र भ्रमरकी तरह चंचल रहा करते हैं, जिनके मनोहर हाथ पल्लवों--नवीन पत्तोंकी तरह लाल और कोमल हैं, जिनके ऐसा श्रेष्ठ पुत्ररूपी फल उत्पन्न हो चुका है जो कि पितादिकके ऋणको दूर करनेका कारण है, जो सुमनस्-मनमें सदा प्रसन्न रहनेवाली और कुलीन श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न होनेवाली हैं। ऐसी मनोहर तथा सरस-सानुराग पुरंध्री स्त्रियां, जिनके गोत्रका विस्तार बहुत बढ़ गया है या बढनेवाला है ऐसे भाग्यशालियोंसे अभिलाषाके साथ इस तरहसे आलिंगन करती हैं जिस तरहसे कि वेलें किसी पुण्यशाली वृक्षसे किया करती हैं। यहांपर पुरंधियोंके जितने विशेषण हैं वे सब वेलोंकी तरफ भी घटित होते हैं । यथा -चंचल नेत्रोंके भ्रमरोंसे युक्त, पुष्पोंसे मनको हरण करनेवाली, हाथके समान पल्लवोंसे रुचिर, सरस-आर्द्रतासे पूर्ण, कुलीन-पृथ्वीमें उत्पन्न होनेवाली, जिनसे इस प्रकारके फल उत्पन्न होते हैं जो कि श्रेष्ठ पुत्रकी तरहसे अपने स्वााके ऋणके दूर करनेमें कारण हैं। पुण्यवानोंको बाल और सुपुत्रोंकी लीला देखनेसे जो सुख प्राप्त होता है उसको दिखाते हैं:
क्रीत्वा वक्षोरजोभिः कृतरभसमुरश्चन्दनं चाटुकारः, किंचित्सतर्ण्य कर्णो द्रुतचरणरण धुरं दूरामित्त्वा ।
अध्याय
१. इसका कारण यह बताया है कि पुत्ररहित पुरुष परलोकमें पितादिकका ऋणी समझा जाता है। इसका अ
भिप्राय यह हो सकता है कि जिस कुलकी स्थिति रखनेकेलिये पिताने उसको उत्पन्न किया और अन्वयदान किया था उसका उसने घात करदिया । अत एव वह अपने कर्तव्यके विषयमें उत्तरदायी है।