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अनगार
धर्म अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थोको विधिपूर्वक-आगममें बताई हुई विधिके अनुसार सिद्ध करनेमें सदा सावधान-प्रमाद छोडकर वर्ताव करनेवाली, जिनके प्रेमसे उत्पन्न हुए भावों-कटाक्षपात, ईषदहास, सनर्म भाषण, वक्रोक्ति आदिकोंमें कृत्रिम बाह्य रोषके कारण एक ऐसा विलक्षण स्वाद भरा रहता है जैसे कि दाल शाक आदि व्यंजनोंमें मसालेके कारण चटपटापन, जिनकी प्रशस्त और कृश शरीररूपी लताएं लावण्य-अतिश यित कांतिके जलमें मानो तैरती रहती हैं, जो पतिके सुखमें सुखी और दुःखमें दुःखी रहा करती हैं, ऐसी सुलोचना सुतारा सीता द्रौपदी आदिके सदृश पतिवृता युवतियां भाग्यशालियोंको प्राप्त हुआ करती हैं।
· यहांपर दुःख-शब्दसे प्रणयभंगादिके द्वारा उत्पन्न हुआ ही दुःख लेना चाहिये न कि व्याधि आदिसे उत्पन्न हुआ। क्योंकि ऐसा दुःख पुण्यशालियोंके सम्भव नहीं। अथवा, कदाचित् व्याधिजन्य भी लिया जासकता है। क्योंकि सुख और दुःख संसारमें स्वभावतः सांतर ही हुआ करते हैं। यथाः
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ।
सुखं दुःखं च मयानां चक्रवत्परिवर्तते ॥ इति । सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख इस तरह मनुष्योंके सुख और दुःख ये दोनो ही गाढीके पहियेकी तरहसे सदा घूमा ही करते हैं।
___• अवस्थाकी अपेक्षा स्त्रियां दो प्रकारकी हुआ करती हैं- १ युवती, २ पुरंधी । जबतक कोई बाल बच्चा नहीं होता तबतक युवती और कुटुम्बिनी हो जानेपर पुरंध्री संज्ञा होती है। इनमेंसे युवतिसम्बन्धी गुणसम्पत्ति -सुख सामग्रीका वर्णन करके अब पुरंध्रीविषयक सुखको दिखाते हैं:
व्यालोलनेत्रमधुपाः सुमनोभिरामाः, पाणिप्रवालरुचिराः सरसाः कुलीनाः ।
अध्याय