________________
७४
मादिपुराण
पृष्ठ
वर्णन
विषय
पृष्ठ | विषय श्रीमती और वज्रजंघ का विवाहोत्सव १५६-१६२
का पार नहीं रहा। दमधर मुनिराज ने वज्रजंघ और श्रीमती का जिनालय में
अवधिज्ञान से जानकर वज्रजंघ और श्रीमती दर्शन के लिए जाना। विवाहोत्सव में
के भवान्तर कहे
१८२-१८३ उपस्थित बन्नीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं
मतिवर, आनन्द, धनमित्र और अकम्पन के के द्वारा वरवधू का अभिनन्दन १६२-१६६
पूर्वभवों का वर्णन _ १८३-१८५ अष्टम पर्व
जिस समय दमधर मुनिराज यह सब वनजंघ और श्रीमती के भोगोपभोग का
व्याख्यान कर रहे थे उस समय शार्दूल,
१६७-१६६ नकुल, वानर और सूकर ये चार प्राणी राजा वज्रबाहु ने वज्रजंघ की बहन अनुन्धरा
निश्चिन्त होकर साम्यभाव से उपदेश सुन चक्रवर्ती के पुत्र अमिततेज के लिए दी १७०
रहे थे। राजा वज्रजंघ ने उनके विषय में भी अपनी जिज्ञासा प्रकट की
१८५ बज्रजंघ का वैभव के साथ अपने नगर में प्रत्यागमन और राजसुख का समुपभोग १७०-१७१ |
मुनिराज ने क्रमश: उनके भवान्तर कहे ।
उन्होंने यह भी कहा कि मतिवर आदि चार वज्रबाहु महाराज को शरद् ऋतु के मेघ को
तथा शार्दूल आदि चार ये आठों अब से शीघ्र ही विलीन हआ देखकर वैराग्य होना
आपके साथ ही उत्पन्न होते रहेंगे और आपके और पांच सौ राजाओं और श्रीमती के सभी
ही साथ इस भव से आठवें भव में निर्वाण-लाभ पुत्रों के साथ दमधर मुनीन्द्र के समीप दीक्षा
करेंगे। आठवें भव में आप तीर्थकर होंगे ग्रहण करना, वज्रजंघ का राज्य करना १७१-१७२
और यह श्रीमती उस समय दानतीर्थ का वज्रदन्त चक्रवर्ती का कमल में बन्द मत भौंरे
प्रवर्तक श्रेयांस राजा होगी। मुनिराज के मुख को देखकर वैराग्य होना, अमिततेज तथा
से यह भवावली सुनकर सब प्रसन्न हुए १८५-१८७ उसके छोटे भाई के राज्य न लेने पर अमिततेज के पुत्र पुण्डरीक को राज्य देकर यशोधर
वनजंघ ने पुण्डरीकिणी नगरी में जाकर राज्ञी मुनि से अनेक राजाओं के साथ दीक्षा लेना,
लक्ष्मीमती तथा बहन अनुन्धरी को सान्त्वना पण्डिता धाय का भी दीक्षित होना १७२-१७४
दी, उनके राज्य की समुचित व्यवस्था की
और पूर्व की भांति वैभव के साथ लौटकर चक्रवर्ती की पत्नी लक्ष्मीमती का पुण्डरीक
वे अपने नगर में वापस आ गये १८७-१८६ को अल्पवयस्क जान राज्य सँभालने के लिए वज्रजंघ के पास दूतों द्वारा पत्र भेजना १७४-१७६
नवम पर्व वाघ का श्रीमती के साथ पुण्डरीकिणी वनजंघ और श्रीमती के षड्ऋतुसम्बन्धी नगरी में जाना १७७-१८१ भोगोपभोगों का वर्णन
१६०-१६१ रास्ते में पड़ाव पर दमधर और सागरसेन
एक दिन वे दोनों शयनागार में शयन कर नामक दो चारणऋद्धि के धारक मुनिराजों का
रहे थे। सुगन्धित द्रव्य का धूम फैलने से आना, वज्रजंघ और श्रीमती के द्वारा उन्हें
शयनागार का भवन अत्यन्त सुवासित हो आहारदान, देवों द्वारा पंचाश्चर्य होना १८१-१८२
रहा था। दुर्भाग्यवश द्वारपाल उस दिन वृद्ध कंचुकी ने जब वज्रजंघ और श्रीमती को भवन के गवाक्ष खोलना भूल गये जिससे बतलाया कि दोनों मुनिराज तो आपके ही श्वास रुक जाने के कारण उन दोनों की अन्तिम युगलपुत्र हैं तब उनके हर्ष और भक्ति
आकस्मिक मृत्यु हो गयी। १६१-१९२