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आदिपुराणम् स्वभावमधुराश्चैते दीर्घाः पुण्ढेक्षुदण्डकाः । रसीकृत्य प्रपातम्या वन्तैर्यन्त्रैश्च पीडिताः ॥२०॥ गजकुम्मस्थले तेन मृदा निर्वर्तितानि च । पात्राणि विविधान्येषां स्थाल्यादीनि दयालुना ॥२०॥ इत्याधुपायकथनैः प्रीताः सत्कृत्य तं मनुम् । भेजुस्तदर्शितां वृत्ति प्रजाः कालोचितां तदा ॥२०५॥ प्रजानां हितकृद् भूत्वा भोगभूमिस्थितिच्युतो। 'नाभिराजस्तदोब्तो भेजे कल्पतरुस्थितम् ॥२०६॥ पूर्व न्यावर्णिता 'ये ये प्रतिश्रुत्यादयः क्रमात् । पुरा मवे बभूवुस्ते विदेहेषु महान्वयाः ॥२०७॥ कुशलैः पात्रदानायैरनुष्ठानैर्यथोचितैः । सम्यक्स्वग्रहणात् पूर्व वध्वायुभोंगमभुवाम् ॥२०॥ पश्चात् धायिकसम्यक्त्वमुपादाय जिनान्तिके । अन्नोदपस्सत स्वायुरन्ते ते श्रुतपूर्विणः ॥२०९॥ 'इमं नियोगमाध्याय प्रजानामित्युपादिशन् । केचिज्जातिस्मरास्तेषु केचियावधिकोचनाः ॥२०॥ प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मताः। भार्याणां कुलसंस्त्यायकृतेः कुलकरा इमे ॥२११॥ 'कुलानां धारणादेते मताः कुलधरा इति । युगादिपुरुषाः प्रोक्ता युगादौ प्रभविष्णवः ॥२१२॥
वृषमस्तीर्थकृच्चैव कुलकृच्चैव संमतः । भरतश्चक्रपृच्चैव "कुलधुञ्चैव वर्णितः ॥२३॥ साथ पकाये गये अन्न आदि खाने योग्य पदार्थ अत्यन्स स्वादिष्ट हो जाते हैं ।।२०२।। और ये स्वभावसे ही मीठे तथा लम्बे-लम्बे पौड़े और ईखके पेड़ लगे हुए हैं। इन्हें दाँतोंसे अथवा यन्त्रोंसे पेलकर इनका रस निकालकर पीना चाहिए ।२०३। उन दयालु महाराज नाभिराजने थाली आदि अनेक प्रकारके बरतन हाथीके गण्डस्थलपर मिट्टी-द्वारा बनाकर उन आर्य पुरुषोंको दिये तथा इसी प्रकार बनानेका उपदेश दिया ।२०४॥ इस प्रकार महाराज नाभिराज-द्वारा बताये हुए उपायोंसे प्रजा बहुत ही प्रसन्न हुई । उसने नाभिराज मनुका बहुत ही सत्कार किया तथा उन्होंने उस कालके योग्य जिस वृत्तिका उपदेश दिया था वह उसीके अनुसार अपना कार्य चलाने लगी ॥२०५।। उस समय यहाँ भोगभूमिकी व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी, प्रजाका हित करनेवाले केवल नाभिराज ही उत्पन्न हुए थे इसलिए वे ही कल्पवृक्षकी स्थितिको प्राप्त हुए थे अर्थात् कल्पवृक्षके समान प्रजाका हित करते थे ।।२०६।। ऊपर प्रतिश्रतिको आदि लेकर नाभिराज पर्यन्त जिन चौदह मनुओंका क्रम-क्रमसे वर्णन किया है वे सब अपने पूर्वभवमें विदेह क्षेत्रों में उप कुलीन महापुरुष थे ।।२०७|| उन्होंने उस भवमें पुण्य बढ़ानेवाले पात्रदान तथा यथायोग्य व्रताचरणरूपी अनुष्ठानोंके द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे पहले ही भोगभूमिकी आयु बाँध ली थी, बाद में श्री जिनेन्द्रके समीप रहनेसे उन्हें क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा श्रुतज्ञानकी प्राप्ति हुई थी और जिसके फलस्वरूप आयुके अन्तमें मरकर वे इस भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए थे ॥२०८-२०९।। इन चौदहमें-से कितने ही कुलकरोंको जातिस्मरण था और कितने ही अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे इसलिए उन्होंने विचार कर प्रजाके लिए ऊपर कहे गये नियोगों-कार्योंका उपदेश दिया था ।।२१०।। ये प्रजाके जीवनका उपाय जाननेसे मनु तथा आर्य पुरुषोंको कुलकी भाँति इको रहनेका उपदेश देनेसे कुलकर कहलाते थे । इन्होंने अनेक वंश स्थापित किये थे इसलिए कुलधर कहलाते थे तथा युगके आदिमें होनेसे ये युगादिपुरुष भी कहे जाते थे ।।२११-२१२॥ भगवान् वृषभदेव तीर्थकर भी थे और कुलकर भी माने गये थे। इसी प्रकार भरत महाराज चक्रवर्ती भी थे और कुलधर
१. नाभिराजस्ततो भेजे श्रुतकल्प-प०म०,६० । २. ये ते म०, ५०, म०, स०, ल• । ये वै द० । ३. पुण्यकारणः। -४. पत्स्यत म०,ल०।५. पूर्वभवे धुतधारिणः। ६. इमानियोगानाध्याय अ०,८०,१०,म., ल.। ७. ध्यात्वा । ८. गृहविन्यासकरणात् । 'संघाते सन्निवेशे च संस्स्यायः' इत्यभिधानात् । ९. अन्वयानाम् । 'कुलमन्वयसंघातगृहोत्पत्त्याश्रमेषु च' इत्पभिधानात् । १०. युगादिप्र-म० । ११. कुलभच्चैव द.,म०, ल० ।