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एकविंशं पर्व धनपुलकितमहर्गानमात्रिर्मुखाज
'दिनकरकरयोगादाकरा वाम्बुजानाम् ॥२६७॥ स्तुतिमुखरमुखास्ते योगिनो योगिमुख्यं
भणमिव जिनसेनाधीश्वरं तं प्रगुत्य । प्रणिधुरथ चेतः श्रोतुमाईन्स्यलक्ष्मी
समधिगतसमग्रज्ञानधाम्नः स्वधाम्नः ॥२६॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
ध्यानतत्त्वानुवर्णनं नाम एकविशं पर्व ॥२१॥
सन्तुष्ट हुए। उनके शरीर हर्पसे रोमांचित हो उठे और जिस प्रकार सूर्यको किरणोंके सम्पर्कसे कमलोंका समूह प्रफुल्लिंत हो जाता है उसी प्रकार हर्षसे उनके मुखकमल भी प्रफुल्लित हो गये थे ।।२६७। अथानन्तर स्तुति करनेसे जिनके मुख वाचालित हो रहे हैं ऐसे उन सभी योगियोंने योगियोंमें मुख्य और जिनसेनाधीश्वर अर्थात् जिनेन्द्र भगवान्की चार संघरूपी सेनाके अथवा आचार्य जिनसेनके स्वामी गौतमगणधरकी थोड़ी देर तक स्तुति कर, जिन्हें समस्त ज्ञानका तेज प्राप्त हुआ है और जो अपने आत्मस्वरूपमें ही स्थिर हैं ऐसे भगवान वृपभदेवकी आर्हन्त्य लक्ष्मीको सुननेके लिए चित्त स्थिर किया ।।२६८।।
इस प्रकार भगवजिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें
ध्यानतत्त्वका वर्णन करनेवाला इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुभा ॥२१॥
१. किरणसंयोगात् । २. वा इव । ३. क्षणपर्यन्तमित्यर्थः । ४. जिनसेनाचार्यस्वामिनम्, अथवा जिनस्य सेना जिनसेना समवसरणस्थभव्यसन्ततिस्तस्या अधीश्वरस्तम् । ५. अवधानयुक्तमकार्षः। ६.ज्ञानतेजसः । ७. स्वात्मैव धाम स्यानं यस्य तस्य स्वस्वरूपादवस्थितस्येत्यर्थः ।
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