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आदिपुराणम् क्वचिद् द्विपहरियाघ्ररूपैमिथुनवृत्तिमिः' । निचित: क्यचिनुद्देशे शुकैहसैश्च बहिणैः ॥१३५॥ विचित्ररत्ननिर्माणैर्मनुष्यमिथुनः क्वचित् । क्वचिच्च कल्पवल्लीमित्रहिरन्तश्च चित्रितः ॥१३६॥ हसन्नियोन्मिषद्रत्नमयूखनिवहः क्वचित् । क्वचिस्सिहरवान् कुर्वमिवोत्सर्परप्रतिध्वनिः ॥१३७॥ दीप्राकारः स्फुरद्रत्नरुचिरा रुन्दखाङ्गणः । निषधाद्रिप्रतिस्पधी स सालो व्यरुचत्तराम् ॥१३॥ महान्ति गोपुराण्यस्य विषभुर्दिक्चतुष्टये। राजतानि खगेन्द्राः शृङ्गाणीव स्पृशन्ति खम् ॥१३९॥ ज्योत्स्नं मन्यानि तान्युच्चैस्त्रिभूमानि चकासिरे । प्रहासमिव तन्वन्ति निर्जित्य त्रिजगच्छ्यिम्॥१४॥ पद्मरागमयैरुच्चैः शिखरैग्योमलधिमिः । दिशः पल्कवयन्तीव प्रसरैः शोणरोचिषाम् ॥१४॥ जगद्गुरोर्गुणानत्र गायन्ति सुरगायनाः । केचिच्छृण्वन्ति नृत्यन्ति केचि दाविर्भवरिस्मताः ॥१४२॥ शतमष्टोत्तरं तेषु मालदग्यसंपदः । भृङ्गारकलशाब्दाचाः प्रत्येक गोपुरेष्वभान् ॥१४३॥ रत्नामरणमामारपरिपिञ्जरिताम्बराः । प्रत्येक तोरणास्तेषु शतसङ्ख्या बमासिरे ॥१४॥
स्वभावभास्वरे मर्नुहे स्वानवकाशताम् । मत्वेवाभरणान्यास्थुरुद्वद्धान्यनुतोरणम् ॥१५॥ युगल रूपसे बने हुए हाथी-घोड़े और व्याघ्रोंके आकारसे व्याप्त हो रहा था, कहीं तोते, हंस और मयूरोंके जोड़ोंसे उद्भासित हो रहा था, कहीं अनेक प्रकारके रत्नोंसे बने हुए मनुष्य और स्त्रियोंके जोड़ोंसे सुशोभित हो रहा था, कहीं भीतर और बाहरकी ओर बनी हुई कल्पलताओंसे चित्रित हो रहा था, कहींपर चमकते हुए रत्नोंकी किरणोंसे हँसता हुआसा जान पड़ता था और कहींपर फैलती हुई प्रतिध्वनिसे सिंहनाद करता हुआ-सा जान पड़ता था ॥१३५-१३७। जिसका आकार बहुत ही देदीप्यमान है, जिसने अपने चमकीले रत्नोंकी किरणोंसे आकाशरूपी आँगनको घेर लिया है और जो निषध कुलाचलके साथ ईर्ष्या करनेवाला है ऐसा वह कोट बहुत ही अधिक शोभायमान हो रहा था ॥१३८।। उस कोटके चारों दिशाओंमें चाँदीके बने हुए चार बड़े-बड़े गोपुरद्वार सुशोभित हो रहे थे जो कि विजयाध पर्वतके शिखरोंके समान आकाशका स्पर्श कर रहे थे ॥१३९॥ चाँदनीके समूहके समान निर्मल, ऊँचे और तीन-तीन खण्डवाले वे गोपुरद्वार ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो तीनों लोकोंकी शोभाको जीतकर हँस ही रही हों ॥१४०॥ वे गोपुरद्वार पद्मरागमणिके बने हुए और आकाशको उल्लंघन करनेवाले शिखरोंसे सहित थे तथा अपनी फैलती हई लाल-लाल किरणोंके समहसे ऐसे जान पड़ते थे मानो दिशाओंको नये-नये कोमल पत्तोंसे युक्त ही कर रहे हों ॥१४१॥ इन गोपुर-दरवाजोंपर कितने ही गानेवाले देव जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवके गुण गा रहे थे, कितने ही उन्हें सुन रहे थे और कितने ही मन्द-मन्द मुसकाते हुए नृत्य कर रहे थे ॥१४२।। उन गोपुर-दरवाजोंमें से प्रत्येक दरवाजेपर गारकलश और दर्पण आदि एक सौ आठ मङ्गलद्रव्यरूपी सम्पदाएँ सुशोभित हो रही थीं ॥१४३।। तथा प्रत्येक दरवाजेपर रत्नमय आभूषणोंकी कान्तिके भारसे आकाशको अनेक वर्णका करनेवाले सौ-सौ तोरण शोभायमान हो रहे थे ॥१४४।। उन प्रत्येक तोरणोंमें जो आभूषण बँधे हुए थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो स्वभावसे ही सुन्दर भगवानके शरीर में अपने
१.-वर्तिभिः ५०, द० । २. प्रदेशे । ३. दीप्ताकारः ल०। ४. रुचिसंरुद्ध-अ०। ५. रजतमयानि । ६. विजयाद्धगिरेः। ७. ज्योत्स्नाशब्दात् परान्मन्यतेर्धातो: 'कर्तुश्च' इति खप्रत्ययः, पुनः खित्यरुद्विषतश्चानव्ययस्य' इति यम्, ह्रस्वः । अनव्ययस्याजन्तस्य खिदन्त उत्तरपदे ह्रस्वादेशो भवति । 'दिवादेः श्यः' इति श्यः । ८. विभूमिकानि । त्रितलानि इत्यर्थः । ९. गोपुरेषु । १०. केचित् स्माविभवस्मिताः द०, इ०, प०, ल.,म०।