Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 710
________________ ६२० आदिपुराणम् प्रधानमारमा प्रकृतिःपरमः परमोदयः । प्रक्षीणबन्धः कामारिः क्षेमकृत् क्षेमशासनः ॥१६५॥ प्रणवः प्रणतः प्राणः प्राणदः प्राणतेश्वरः । प्रमाणं प्रणिधिदक्षो दक्षिणोऽध्वर्यु रध्वरः ॥५६६॥ मानन्दो नन्दनौ नन्दो बन्योऽनिन्थोऽभिनन्दनः । कामहाँ कामदः काम्यः कामधेनुररिंजयः ॥ १६७॥ इति महामुन्यादिशतम् । "असंस्कृतसुसंस्कारः प्राकृतो बैकृतान्तकृत् । "भन्तकृत् कान्तगुः कान्तश्चिन्तामणिरीष्टदः ॥१६॥ अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासनः । जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तकः ॥१६६॥ ज्ञानके द्वारा सब जगह व्याप्त होनेके कारण ज्ञानसर्वग ५६९ कहलाते हैं ॥१६४॥ एकाग्रतासे आत्माका ध्यान करने अथवा तीनों लोकों में प्रमुख होनेसे प्रधान ५७०, ज्ञानस्वरूप होनेसे आत्मा ५७१, प्रकृष्ट कार्योंके होनेसे प्रकृति ५७२, उत्कृष्ट लक्ष्मीके धारक होनेसे परम ५७३, उत्कृष्ट उदय अथात् जन्म या वैभवको धारण करनेसे परमोदय ५०४, कर्मबन्धनके क्षीण हा जानेसे प्रक्षीणबन्ध ५७५, कामदेव अथवा विषयाभिलाषाके शत्रु होनेसे कामारि ५७६, कल्याणकारी होनेसे क्षेमकृत् ५७७ और मंगलमय उपदेशके देनेसे क्षेमशासन ५७८ कहलाते हैं ।।१६।। ओंकाररूप होनेसे प्रणव ५७९, सबके द्वारा नमस्कृत होनेसे प्रणत ५८०, जगत्को जीवित रखनेसे प्राण ५८१, सब जीवोंके प्राणदाता अर्थात् रक्षक होनसे प्राणद ५८२, नम्रीभूत भव्य जनोंके स्वामी होनेसे प्रणतेश्वर ५६३, प्रमाण अर्थात् ज्ञानमय होनेसे प्रमाण ५८४, अनन्तज्ञान आदि उत्कृष्ट निधियोंके स्वामी होनेसे प्रणिधि ५८५, समर्थ अथवा प्रवीण होनेसे दक्ष ५८६, सरल होनेसे दक्षिण ५८७, ज्ञानरूप यज्ञ करनेसे अध्वर्यु ५८८ और समीचीन मार्गफे प्रदर्शक होनेसे अध्वर ५८९ कहलाते हैं ॥१६६।। सदा सुखरूप होनेसे आनन्द ५९०, सबको आनन्द देनेसे नन्दन ५९१, सदा समृद्धिमान होते रहने से नन्द ५९२, इन्द्र आदिके द्वारा बन्दना करने योग्य होनेसे वन्ध ५९३, निन्दारहित होनेसे अनिन्ध ५९४, प्रशंसनीय होनेसे अभिनन्दन ५९५, कामदेवको नष्ट करनेसे कामहा ५९६, अभिलषित पदार्थोंको देनेसे कामद ५९७, अत्यन्त मनोहर अथवा सबके द्वारा चाहनेके योग्य होनेसे काम्य ५६८, सबके मनोरथ पूर्ण करनेसे कामधेनु ५९९ और कर्मरूप शत्रुओंको जीतनेसे अरिंजय ६०० कहलाते हैं ॥१६७।। किसी अन्यके द्वारा संस्कृत हुए बिना ही उत्तम संस्कारोंको धारण करनेसे असंस्कृतसुसंस्कार ६०१, स्वाभाविक होनेसे प्राकृत ६०२, रागादि विकारोंका नाश करनेसे वैकृतान्तकृत् ६०३, अन्त अर्थात् धर्म अथवा जन्ममरणरूप संसारका अवसान करनेवाले होनेसे अन्तकृत् ६०४, सुन्दर कान्ति, वचन अथवा इन्द्रियोंके धारक होनेसे कान्तगु ६०५, अत्यन्त सुन्दर होनेसे कान्त ६०६, इच्छित पदार्थ देनेसे चिन्तामणि ६०७ और भव्यजीवोंके लिए अभीष्ट-स्वर्ग-मोक्ष के देनेसे अभीष्टद ६०८ कहलाते हैं ॥१६८।। किसीके द्वारा जीते नहीं जा सकनेके कारण अजित ६०९, कामरूप शत्रुको जीतनेसे जितकामारि ६१०, अवधिरहित होनेके कारण अमित ६११, अनुपम धर्मका उपदेश देनेसे अमितशासन ६१२, क्रोधको जीतनेसे जितक्रोध ६१३, शत्रुओंको जीत लेनेसे जितामित्र ६१४, १. परा उत्कृष्टा मा लक्ष्मीर्यस्य सः परमः । २. ओंकारः । ३. प्रकर्षणानतामीश्वरः। प्रणतेश्वरःव०, अ०, १०, स०, द., ल०, इ०। ४. चारः। ५. ऋजुः। ६. होता। ७. नन्दयतीति नन्दनः। ८. वर्धमानः । ९. अभिनन्दयतीति । १०. कामं हन्तीति । ११. असंस्कृतसुसंस्कारोप्राकृतो-ल० । १२. विकारस्य नाशकारी । १३. अन्तं नाशं कुततीति ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782