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आदिपुराणम् अनीदृगुपमाभूतो दिष्टि देव मगोचरः । अमृतो मूर्तिमानेको नैको नानकतत्त्व दृक् ॥१८७॥ . अध्यात्मगम्यो गम्यात्मा योगविद् योगिवन्दितः। सर्वत्रगः सदाभावी त्रिकालविषयार्थदृक् ॥१८॥ शंकरःशंवदो दान्तो दमी शान्तिपरायणः । अधिपः परमानन्दः परात्मज्ञः परापरः ॥१८९॥ त्रिजगहल्लभोऽभ्यय॑स्त्रिजगन्मङ्गलोदयः । त्रिजगत्पतिपूज्याघ्रिस्त्रिलोकाग्रशिखामणिः ॥१९०॥
इति बृहदादिशतम् ।
इसलिए विमुक्तात्मा ७६२ कहे जाते हैं, आपका कोई भी शत्रु या प्रतिद्वन्द्वी नहीं है इसलिए निःसपत्न ७६३ कहलाते हैं, इन्द्रियोंको जीत लेनेसे जितेन्द्रिय ७६४ कहे जाते हैं, अत्यन्त शान्त होनेसे प्रशान्त ७६५ हैं, अनन्त तेजके धारक ऋपि होनेसे अनन्तधामर्षि ७६६ हैं, मंगलरूप होनेसे मंगल ७६७ हैं, मलको नष्ट करनेवाले हैं इसलिए मलहा ७६८ कहलाते हैं
और व्यसन अथवा दुःखसे रहित हैं इसलिए अनघ ७६९ कहे जाते हैं ॥१८६।। आपके समान अन्य कोई नहीं है इसलिए आप अनीहक् ७७० कहलाते हैं, सबके लिए उपमा देने योग्य हैं इसलिए उपमाभूत ७७१ कहे जाते हैं, सब जीवोंके भाग्यस्वरूप होनेके कारण दिष्टि ७७२
और दैव ७७३ कहलाते हैं, इन्द्रियोंके द्वारा जाने नहीं जा सकते अथवा केवलज्ञान होने के वाद ही आप गो अर्थात् पृथिवीपर विहार नहीं करते किन्तु आकाशमें गमन करते हैं इसलिए अगोचर ७७४ कहे जाते हैं, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शसे रहित होने के कारण अमूर्त ७७५ हैं, शरीरसहित हैं इसलिए मूर्तिमान् ७७६ कहलाते हैं, अद्वितीय हैं इसलिए एक ७७७ कहे जाते हैं, अनेक गुणोंसे सहित हैं इसलिए नैक ७७८ कहलाते हैं और आत्माको छोड़कर आप अन्य अनेक पदार्थोंको नहीं देखते-उनमें तल्लीन नहीं होते इसलिए नानैकतत्त्वदृक् ७७६ कहे जाते हैं ॥१८७। अध्यात्मशास्त्रोंके द्वारा जानने योग्य होनेसे अध्यात्मगम्य ७८०, मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानने योग्य न होनेसे अगम्यात्मा ७८१, योगके जानकार होनेसे योगविद् ७८२, योगियों के द्वारा वन्दना किये जानेसे योगिवन्दित ७८३, केवलज्ञानकी अपेक्षा सब जगह व्याप्त होनेसे सर्वत्रग ७८४. सदा विद्यमान रहनेसे सदाभावी ७८५ और त्रिकालविषयक समस्त पदार्थोंको देखनेसे त्रिकालविषयार्थदृक् ७८६ कहलाते हैं ॥१८८।। सबको सुखके करनेवाले होनेसे शंकर ७८७, सुखके बतलानेवाले होनेसे शंवद ७८८, मनको वश करनेसे दान्त ७८९, इन्द्रियोंका दमन करनेसे दमी ७६०, क्षमा धारण करने में तत्पर होनेसे क्षान्तिपरायण ७९१, सबके स्वामी होनेसे अधिप ७६२, उत्कृष्ट आनन्दरूप होनसे परमानन्द ७९३, उत्कृष्ट अथवा पर और निजकी आत्माको जाननेसे परात्मज्ञ ६४ और श्रेष्ठसे श्रेष्ठ होनेके कारण परात्पर ७९५ कहलाते हैं ॥१८॥ तीनों लोकोंके प्रिय अथवा स्वामी होनेसे त्रिजगद्वल्लभ ७९६, पूजनीय होनेसे अभ्यर्च्य ७६७, तीनों लोकोंमें मंगलदाता होनेसे त्रिजगन्मंगलोदय ७९८, तीनों लोकोंके इन्द्रों-द्वारा पूजनीय चरणोंसे युक्त होनेके कारण त्रिजगत्पतिपूज्यामि ७९९ और कुछ समयके बाद तीनों लोकोंके अग्रभागपर चूड़ामणिके समान विराजमान होनेके कारण त्रिलोकाग्रशिखामणि ८०० कहलाते हैं ॥१०॥ तीनों कालसम्बन्धी समस्त
१. प्रमाणानुपातिनी मतिः । २. स्तुत्यम् । ३. अनेकैकतत्त्वदर्शी । ४. ध्यानगोचरः । ५. नित्याभिप्रायवान् । ६. दमितः । ७. सार्वकालीनः । परात्परः -ल.।
*यद्यपि ६४७वा नाम भी अनघ है इसलिए ७६९ वा अनघ नाम पुनरुक्त-सा मालूम होता है, परन्तु अघ शब्दके 'अघं तु व्यसने दुःखे दुरितेच नपुंसकम्' अनेक अर्थ होनेसे पुनरुक्तिका दोष दूर हो जाता है।