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आदिपुराणम् इदं स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति माक्तिकः । यः संपाउं पठत्यनं स स्यात् कल्याणमाजनम् ॥२२॥ ततः सदेदं पुण्यार्थी पुमान् परतु पुण्यधीः । पौरुहूतीं श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुकः ॥२२६॥ स्तुवेति मघवा देवं चराचरजगद्गुरुम् । ततस्तीर्थविहारस्य व्यधात् प्रस्तावनामिमाम् ॥२२७॥ भगवन भव्य सस्यानां पापावग्रहशोषिणाम् । धर्मामृतप्रसकेन स्वमधि शरणं विभो ॥२२८॥ मन्यसार्थाधिपप्रोद्य दयाध्वजविराजित । धर्मचक्रमिदं सज्जं स्वज्जयोद्योगसाधनम् ॥२२९॥ निय मोहपृतनां मुक्तिमार्गोपरोधिनीम् । तवोपदेष्टुं सन्मार्ग कालोऽयं समुपस्थितः ॥२३०॥ ----- इति प्रबुद्धतत्वस्य स्वयं भर्तुजिंगीषतः । पुनरुक्ततरा वाचः प्रादुरासन् शतक्रतोः॥२३॥ अथ त्रिभुवनक्षोभी तीर्थकृत् पुण्यसारथिः । भव्याजानुग्रहं कर्तुमुत्तस्थे जिनमानुमान् ॥२३२॥ मोक्षाधिरोहनिःश्रेणीभूतच्छनत्रयोद्धरः । यशःक्षीरोदफेनामसितचामरवीजिता ॥२३३॥ ध्वनन्मधुरगम्भीरधीरदिव्यमहाध्वनिः । भानुकोटिप्रतिस्पर्धिप्रमावलयभास्वरः ॥२३४।। 'मरुत्प्रहतगम्भीरबंधनदुन्दुभिः प्रभुः । सुरोत्करकरोन्मुक्तपुष्पवर्षार्चितक्रमः ।।२३५।। हे भगवन , हम लोग आपको नामावलीसे बने हुए स्तोत्रोंकी मालासे आपकी पूजा करते हैं, आप प्रसन्न होइए. और हम सबको अनग्रहीत कीजिए।२२४॥ भक्त लोग इस स्तोत्रका स्मरण करने मात्रसे ही पवित्र हो जाते हैं और जो इस पुण्य पाठका पाठ करते हैं वे कल्याणके पात्र होते हैं ।।२२।। इसलिए जो बुद्धिमान् पुरुष पुण्यकी इच्छा रखते हैं अथवा इन्द्रकी परम विभूति प्राप्त करना चाहते हैं वे सदा ही इस स्तोत्रका पाठ करें ।।२२६॥ इस प्रकार इन्द्रने चर और अचर जगत्के गुरु भगवान वृषभदेवकी स्तुति कर फिर तीर्थ विहारके लिए नीचे लिखी हुई प्रार्थना की ॥२२७॥ हे भगवन् , भव्य जीवरूपी धान्य पापरूपी अनावृष्टिसे सूख रहे हैं सो हे विभो, उन्हें धर्मरूपी अमृतसे सींचकर उनके लिए आप ही शरण होइए ॥२२८।। हे भव्य जीवोंके समूहके स्वामी, हे फहराती हुई दयारूपी ध्वजासे सुशोभित, जिनेन्द्रदेव, आपकी विजयके उद्योगको सिद्ध करनेवाला यह धर्मचक्र तैयार है ।।२२॥हे भगवन् , मोक्षमार्गको रोकनेवाली मोहकी सेनाको नष्ट कर चुकनेके बाद अब आपका यह समीचीन मोक्षमार्गके उपदेश देनेका समय प्राप्त हुआ है ।।२३०। इस प्रकार जिन्होंने समस्त तत्त्वोंका स्वरूप जान लिया है और जो स्वयं ही विहार करना चाहते हैं ऐसे भगवान् वृषभदेवके सामने इन्द्रके वचन पुनरुक्त हुए-से प्रकट हुए थे। भावार्थ-उस समय भगवान् स्वयं ही विहार करनेके लिए तत्पर थे इसलिए इन्द्र-द्वारा की हुई प्रार्थना व्यर्थ-सी मालूम होती थी ।।२३१॥ ___अथानन्तर-जो तीनों लोकोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले हैं और तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृति ही जिनका सारथि-सहायक है ऐसे जिनेन्द्रदेवरूपी सूर्य भव्य जीवरूपी कमलोंका अनुग्रह करनेके लिए तैयार हुए ॥२३२।। जो मोक्षरूपी महलपर चढ़ने के लिए सीढ़ियोंके समान छत्रवयसे सुशोभित हो रहे हैं, जिनपर क्षीरसमुद्रके फेनके समान सुशोभित चमर ढोले जा रहे हैं, मधुर, गम्भीर, धीर तथा दिव्य महाध्वनिसे जिनका शरीर शब्दायमान हो रहा है, जो करोड़ों सूर्योंसे स्पर्धा करनेवाले भामण्डलसे देदीप्यमान हो रहे हैं, जिनके समीप ही देवताओंके द्वारा बजाये हुए दुन्दुभि गम्भीर शब्द कर रहे हैं, जो स्वामी हैं, देवसमूहके हाथोंसे छोड़ी हुई पुष्पवर्षासे जिनके चरण-कमलोंकी पूजा हो रही है, जो मेरु पर्वतके शिखरके समान अतिशय ऊँचे सिंहासनके स्वामी हैं, छाया और फलसहित अशोकवृक्षसे जिनकी
१. अवसरम् । २. अनावृष्या इत्यर्थः । 'वृष्टिवष तद्विघातेव ग्रहावग्रही समौ' इत्यमरः। ३. 'अस भुवि' भव । ४. उदोनूव॑हीतीति तङ्, उद्युक्तोऽभूत् । ५. उत्कटः । ६. सुरताड्यमान ।