Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 734
________________ ६४४ आदिपुराणम् लाख वर्षका एक पूर्वांग होता है और चौरासी लाख पूर्वांगका एक पूर्व होता है। ऐसे एक करोड़ पूर्व ३।१५३ पूर्वरंग-नाटकका प्रारम्भिक रूप २१८८ पृथक्त्व-तीनसे ऊपर और नौसे नीचेकी संख्या ५।२८६ पृथक्त्वभ्यान (पृथक्त्ववितर्क)शुक्लध्यानका प्रथम पाया १११११० प्रकीर्णक-फुटकर बसे हुए विमान १०।१८७ प्रत्यय-सम्यग्दर्शनका पर्यायान्तर नाम ९।१२३ प्रत्येक बुद्ध-वैराग्यका कारण देख स्वयं वैराग्य धारण करनेवाले मुनि २०६८ प्रथम व्रत मावना-१ मनोगुप्ति २ वचनगुप्ति ३ कायगुप्ति ४ ईर्या समिति और ५ एषणा समिति ये पांच अहिंसावतकी भावनाएं हैं २०.१६१ प्रथमानुयोग-शास्त्रोंका एक भेद जिसमें सत्पुरुषोंके कथानक लिखे जाते हैं २।९८ प्रमाण-जो वस्तुके समस्त धर्मों (नित्यत्व-अनित्यत्व आदि) को एक साथ ग्रहण करे वह ज्ञान २।१०१ प्रशम-सम्यग्दर्शनका एक गुण, J कषायके असंख्यात लोक प्रमाण स्थानोंमें मनका | भव्य-जिसे सिद्धि-मुक्ति प्राप्त स्वभावसे शिथिल होना हो सके ऐसा जीव ९।१२३ २४।१२८ प्रायेणापगम (प्रायोपगम )- भावन-भवनवासी देव संन्यास १३।१३ ११।९६ भावलेश्या-कषायके उदयसे प्रायोपगमन-संन्यासमरणका एक अनुरंजित योगोंकी प्रवृत्ति भेद, जिसमें शरीरको सेवा - १०१९७ न स्वयं करते हैं और न भुक्ति-भोगका क्षेत्र दूसरेसे कराते हैं १०।१८५ ५।२३४ भोजनांग-सब प्रकारका भोजन प्रायोपवेशन-संन्यास-सल्लेखना देनेवाला एक कल्पवृक्ष .. ११।९४-९५ ३।३९ प्रोषधवत-प्रोषधोपवास नामक मडम्ब-जो पांच सौ गांवोंसे चौथी प्रतिमा । इसमें प्रत्येक घिरा हो ऐसा नगर अष्टमी और चतुर्दशीको १६।१७२ उपवास करना पड़ता है मद्यांग-एक कल्पवृक्ष,इससे अनेक १०।१५९ रसोंकी प्राप्ति होती है ३।३९ फलचारण-चारण ऋद्धिका एक मधुनाविन-मधुस्राविणी ऋति.. भेद । इस ऋद्धिके धारी के धारक वृक्षोंमें लगे फलोंपर पैर | .-२२७२ रखकर चलें फिर भी फल मनोगुप्ति-मनको वशमें करना नहीं टूटते हैं २१७७ २०७३ मनोबलिन् - मनोबल ऋद्धिके धारक २०७२ बल-बलभद्र, नारायणका भाई, मातृकापद-१ ईर्या २ भाषा ये नौ होते है ३ एषणा ४ आदान निक्षे२१११७ पण और ५ प्रतिष्ठापन ये बीजबुद्धि - बोजबुद्धि ऋटिके पांच समितियां तथा १ धारक मनोगुप्ति २ वचनगुप्ति २०६७ और ३ कायगुप्ति ये तीन ब्रह्मचर्य-यह सातवीं प्रतिमा गुप्तियां ये आठ मातृकापद है, इसमें स्त्रीमात्रका त्याग अथवा प्रवचनमातृका कहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण लाती हैं। मात्राष्टक भो करना पड़ता है यही हैं १०११६० २०1१६८

Loading...

Page Navigation
1 ... 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782