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आदिपुराणम्
तं देवं दिशाधिपातिपदंघाविक्षयानन्तरं.
प्रोस्थानन्तचतुष्टयं जिनमिनं मन्याब्जिनीमामिनम् । मानस्तम्मविलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकीपति
प्राप्ताचिन्स्यबहिर्विभूतिमनघं मक्त्या प्रवन्दामहे ॥२९॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसड्महे
भगवद्विहारवर्णनं नाम पञ्चविंशतितमं पर्व ॥२५॥
सहित थे, आदरके साथ भक्तिसे नम्रीभूत हुए बारह सभाके लोगोंसे घिरे हुए थे और उत्तमोत्तम आठ प्रातिहार्योंसे सुशोभित हो रहे थे ॥२८९॥ जिनके चरणकमल इन्द्रोंके द्वारा पूजित हैं, घातियाकोका भय होनेके बाद जिन्हें अनन्तचतुष्टयरूपी विभूति प्राप्त हुई है, जो भव्यजीवरूपी कमलिनियोंको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान हैं, जिनके मानस्तम्भोंके देखने मात्रसे जगन्के अच्छे-अच्छे पुरुष नम्रीभूत हो जाते हैं, जो तीनों लोकोंके स्वामी हैं, जिन्हें अचिन्त्य बहिरंग विभूति प्राप्त हुई है, और जो पापरहित हैं ऐसे श्रीस्वामी जिनेन्द्रदेवको हम लोग भी भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं ॥२९॥
इस प्रकार भगवजिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहमें भगवान्के
विहारका वर्णन करनेवाला पचीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२५॥
१. प्रभुम् । २. सूर्यम् ।