Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 719
________________ -rrrrrrrrrrrrrowroomrana पञ्चविंशतितमं पर्व समन्तभद्रः शान्तारिधर्माचार्यो दयानिधिः । सूक्ष्मदर्शी जितानङ्गः कृपालुर्धर्मदेशकः ॥२१६॥ शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशि रनामयः । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥२१७॥ इति दिग्वासायष्टोत्तरशतम् धाम्नां पते तवामूनि नामान्यागमकोविदः। समुश्चितान्यनुध्यायन् पुमान् पूतरमृतिर्मवेत् ॥२१८॥ गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरो मतः । स्तोता तथाप्यसन्दिग्धं स्वत्तोऽभीष्टफलं भजेत् ॥२१९॥ स्वमतोऽसि जगबन्धुस्वमतोऽसि जगद्भिषक् । स्वमतोऽसि जगद्धाता स्वमतोऽसि जगद्धितः ॥२२०॥ स्वम जगतां ज्योतिस्त्वं 'द्विरूपोपयोगमाक । स्वं त्रिरूपैकमक्त्या स्वोत्थानन्तचतुष्टयः॥२२१॥ त्वं पञ्चब्रह्मतत्त्वारमा पञ्चकल्याणनायकः । भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः ॥२२२॥ "दिग्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवललब्धिकः । दशावतार' 'निर्धायों मां पाहि परमेश्वर ॥२२॥ युष्मन्नामावलीहब्ध विलसत्स्तोत्रमालया। भवन्तं परिवस्यामः'प्रसीदानुगृहाण नः ॥२२४॥ सब ओरसे मंगलरूप होनेके कारण समन्तभद्र ९९४, कर्मरूप शत्रुओंके शान्त हो जानेसे शान्तारि ९९५, धर्मके व्यवस्थापक होनेसे धर्माचार्य ९९६, दयाके भण्डार होनेसे दयानिधि ९९७, सूक्ष्म पदार्थोंको भी देखनेसे सूक्ष्मदर्शी ९९८, कामदेवको जीत लेनेसे जिताना पायक्त होनेसे कपाल १००० और धर्मके उपदेशक होनेसे धर्मदेशक २००१ कहलाते हैं ।।२१६।। शुभयुक्त होनेसे शुभंयु १००२, सुखके अधीन होनेसे सुखसाद्भूत १००३, पुण्यके समूह होनेसे पुण्यराशि १००४, रोगरहित होनेसे अनामय १००५, धर्मकी रक्षा करनेसे धर्मपाल १००६, जगत्की रक्षा करनेसे जगत्पाल १००७ और धर्मरूपी साम्राज्यके स्वामी होनेसे धर्मसाम्राज्यनायक १००८ कहलाते हैं ।।२१७।। हे तेजके अधिपति जिनेन्द्रदेव, आगमके ज्ञाता विद्वानोंने आपके ये एक हजार आठ नाम संचित किये हैं, जो पुरुष आपके इन नामोंका ध्यान करता है उसकी स्मरणशक्ति अत्यन्त पवित्र हो जाती है ।। २१८ ॥ हे प्रभो, यद्यपि आप इन नामसूचक वचनोंके गोचर हैं तथापि वचनोंके अगोचर ही माने गये हैं, यह सब कुछ है परन्तु स्तुति करनेवाला आपसे निःसन्देह अभीष्ट फलको पा लेता है ।।२१९।। इसलिए हे भगवन् , आप ही इस जगत्के बन्धु हैं, आप ही जगत्के वैद्य हैं, आप ही जगत्का पोषण करनेवाले हैं और आप ही जगत्का हित करनेवाले हैं ।।२२०॥ हे नाथ, जगत्को प्रकाशित करनेवाले आप एक ही हैं। ज्ञान तथा दर्शन इस प्रकार द्विविध उपयोगके धारक होनेसे दो रूप हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इस प्रकार त्रिविध मोक्षमार्गमय होनेसे तीन रूप हैं, अपने-आपमें उत्पन्न हुए बतष्टयरूप होनेसे चार रूप हैं।२२॥ पंचपरमेष्ठी स्वरूपहोने अथवा गर्भादि पंच कल्याणकोंके नायक होनेसे पाँच रूप हैं, जीब-पुद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्योंके ज्ञाता होनेसे छह रूप हैं, नैगम आदि सात नयोंके संग्रहस्वरूप होनेसे सात रूप हैं, सम्यक्त्व आदि आठ अलौकिक गुणरूप होनेसे आठ रूप.हैं, नौ केवललब्धियोंसे सहित होनेके कारण नव रूप हैं और महाबल आदि दस अवतारोंसे आपका निर्धार होता है इसलिए दस रूप हैं इस प्रकार हे परमेश्वर, संसारके दुःखोंसे मेरी रक्षा कीजिए ।।२२२-२२३।। १. समन्तात् मङ्गलः । २. शुभं युनक्तीति । ३. सुखाधीनः । ४. पुण्यराशिनिरामयः । ५. पवित्रज्ञानी। ६. ज्ञानदर्शनोपयोग । ७. रत्नत्रयस्वरूप । ८. पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपः। ९. षड्द्रव्यस्वरूपज्ञः। १०. सम्यक्त्वाधष्टगुणमूर्तिः। अथवा पृथिव्यायष्टगुणमूर्तिः। ११. महाबलादिपुरुजिनपर्यन्तदशावतार । १२. रचित । १३. आराधयामः।

Loading...

Page Navigation
1 ... 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782