Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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६२६
आदिपुराणम् आदित्यवर्णो भर्माभः सुप्रमः कनकप्रमः । सुवर्णवर्णो रुक्मामः सूर्यकोटिसमप्रभः ॥१९७॥ तपनीयनिमस्तुङ्गो बालार्कामोऽनलप्रभः । सन्ध्याघ्र बभ्रुहमाभस्तप्तचामीकरच्छविः ॥ १९८॥ निष्टप्लकनकच्छायः कनरकाञ्चनसन्निभः । हिरण्यवर्णः स्वर्णाभः शातकुम्भनिभप्रभः ॥१९९॥ घुम्नाभो 'जातरूपामस्तप्तजाम्बूनदयुतिः । सुधौतकलधौत श्रीः प्रदीप्तो हाटकद्युतिः ॥२०॥ शिष्टेष्टः पुष्टिदः पुष्टः स्पष्टः स्पष्टाक्षरः क्षमः । शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघः प्रशास्ता शासिता स्वभूः ।२०।। शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठ: शिवताति: शिवप्रदः । शान्तिदः शान्तिकृच्छान्तिः कान्तिमानकामितप्रदः २०२ 'श्रेयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः । सुस्थिरः स्थावरः स्थास्नुः प्रथीयान् प्रथितः पृथुः ॥२०३॥
इति निकालदर्यादिशतम् । प्रभाके धारक होनेसे ज्वलज्ज्वलनसप्रभ ८४४ कहलाते हैं ॥१९६।। सूर्यके समान तेजस्वी होनेसे आदित्यवर्ण ८४५, सुवर्णके समान कान्तिवाले होनेसे भर्माभ ८४६, उत्तमप्रभासे युक्त होनेके कारण सुप्रभ ८४७, सुवर्णके समान आभा होनेसे कनकप्रभ ८४८, सुवर्णवर्ण ८४९ और रुक्माभ ८५० तथा करोड़ों सूर्योंके समान देदीप्यमान प्रभाके धारक होनेसे सूर्यकोटिसमप्रभ ८५१ कहे जाते हैं ॥१९७॥ सुवर्णके समान भास्वर होनेसे तपनीयनिभ ८५२, ऊँचा शरीर होनेसे तुंग ८५३, प्रातःकालके सूर्यके समान बालप्रभाके धारक होनेसे बालार्काभ ८५४, अग्निके समान कान्तिवाले होनेसे अनलप्रभ ८५५, संध्याकालके बादलोंके समान सुन्दर होनेसे सन्ध्याभ्रवध्रु८५६, सुवर्णके समान आभावाले होनेसे हेमाभ ८५७ और तपाये हुए सुवर्णके समान प्रभासे युक्त होने के कारण तप्तचामीकरप्रभ ८५८ कहलाते हैं ॥१९८॥ अत्यन्त तपाये हुए सुवर्णके समान कान्ति वाले होनेसे निष्टप्तकनकच्छाय ८५९, देदीप्यमान सुवर्णके समान उज्ज्वल होनेसे कनकांचनसग्निभ ८६० तथा सुवर्णके समान वर्ण होनेसे हिरण्यवर्ण ८६१ स्वर्णाभ ८६२, शातकुम्भनिभप्रभ ८६३, गुम्नाभ ८६४, जातरूपाभ ८६५, तप्तजाम्बूनदयुति ८६६, सुधौतकलधौतश्री ८६७ और हाटकयुति ८६८ नथा देदीप्यमान होनेसे प्रदीप्त ६९ कहलाते हैं ॥१९९-२००॥ शिष्ट अर्थात् उत्तम पुरुषोंके इष्ट होनेसे शिष्टेष्ट ८७०, पुष्टिको देनेवाले होनेसे पुष्टिद ८७१, बलवान होनेसे अथवा लाभान्तराय कर्मके क्षयसे प्रत्येक समय प्राप्त होनेवाले अनन्त शुभ पद्गलवर्गणाओंसे परमौवारिक शरीरके पुष्ट होनेसे पुष्ट ८७२, प्रकट दिखाई देनेसे स्पष्ट ८७३, स्पष्ट अक्षर होनेसे स्पष्टाक्षर ८७४, समर्थ होनेसे क्षम ८७५, कर्मरूप शत्रुओंको नाश करनेसे शत्रुघ्र ८७६, शत्रुरहित होनेसे अप्रतिष ८७७, सफल होनेसे अमोष ८७८, उत्तम उपदेशक होनेसे प्रशास्ता ८७९, रक्षक होनेसे शासिता ८० और अपने आप उत्पन्न होनेसे स्वभू ८८१ कहलाते हैं ।।२०१॥ शान्त होनेसे शान्तिनिष्ठ ८८२, मुनियों में श्रेष्ठ होनेसे मुनिज्येष्ठ ८२३, कल्याण परम्पराके प्राप्त होनेसे शिवताति ८८४, कल्याण अथवा मोक्ष प्रदान करनेसे शिवप्रद ८८५, शान्तिको देनेवाले होनेसे शान्तिद १८६, शान्तिके कर्ता होनेसे शान्तिकृत् ८८७, शान्तस्वरूप होनेसे शान्ति , कान्तियुक्त होनेसे कान्तिमान ८८९ और इच्छित पदार्थ प्रदान करनेसे कामितप्रद ८९० कहलाते हैं ।।२०२।। कल्याणके भण्डार होनेसे श्रेयोनिधि ८९१, धर्मके आधार होनेसे अधिष्ठान ८९२, अन्यकृत प्रतिष्ठासे रहित होनेके कारण अप्रतिष्ठ ८९३, प्रतिष्ठा अर्थात् कीर्तिसे युक्त होनेके कारण प्रतिष्ठित ८९४, अतिशय स्थिर होनेसे सुस्थिर ८९५, समवसरणमें गमनरहित होनेसे स्थावर ८९६, अचल होनेसे स्थाणु ८९७,
१. सन्ध्याकालमेघवत् पिङ्गलः । २. कनकप्रभः । ३. सुखपरम्परः। ४. श्रेयोनिधि अ०,ल., स.। ५. स्थैर्यवान् । ६. सुस्थितः द०, ल०, अ०,१०, इ. । स्थाणुः ल०, अ० । ७. अतिशयेन पृथुः ।
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