Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 711
________________ ६२१ पञ्चविंशतितमं पर्व जिनेन्द्रः परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभिस्वनः । महेन्द्रवन्यो योगीन्द्रो. यतीन्द्रो नामिनन्दनः ॥१७॥ नाभेयो नामिजोऽजातः सुव्रतो मनुरुत्तमः । अभेद्योऽनत्य योऽनाश्वा नधिकोऽधिगुरु सुधीः ॥१७॥ सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षी निरुत्सुकः । विशिष्टः शिष्टभुक शिष्टः प्रत्ययः कामनी ऽनघः।१७२। क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्यः क्षेमधर्मपतिः क्षमी । भग्रायो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तरः ॥१७३॥ सुकृती धातु रिज्याहः सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुखः ॥१७॥ क्लेशोंको जीत लेनेसे जितक्लेश ६१५ और यमराजको जीत लेनेसे जितान्तक ६१६ कहे जाते हैं ॥१६९॥ कर्मरूप शत्रुओंको जीतनेवालोंमें श्रेष्ठ होनेसे जिनेन्द्र ६१७, उत्कृष्ट आनन्दके धारक होनेसे परमानन्द ६१८, मुनियोंके नाथ होनेसे मुनीन्द्र ६१९, दुन्दुभिके समान गम्भीर ध्वनिसे युक्त होनेके कारण दुन्दुभिस्वन ६२०, बड़े-बड़े इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय होनेसे महेन्द्रवन्ध ६२१, चोगियोंके स्वामी होनेसे योगीन्द्र ६२२, यतियोंके अधिपति होनेसे यतीन्द्र ६२३ और नाभिमहाराजके पुत्र होनेसे नाभिनन्दन ६२४ कहलाते हैं ॥१७०।। नाभिराजाकी सन्तान होनेसे नाभेय ६२५, नाभिमहाराजसे उत्पन्न होनेके कारण नाभिज ६२६, द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा जन्मरहित होनेसे अजात ६२७, उत्तम व्रतोंके धारक होनेसे सुत्रत ६२८, कर्मभूमिकी समस्त व्यवस्था बताने अथवा मनन-ज्ञानरूप होनेसे मनु ६२९, उत्कृष्ट होनेसे उत्तम ६३०, किसीके द्वारा भेदन करने योग्य न होनेसे अभेद्य ६३१, विनाशरहित होनेसे अनत्यय ६३२, तपश्चरण करनेसे अनाश्वान् ६३३, सबमें श्रेष्ठ होने अथवा वास्तविक सुख प्राप्त होनेसे अधिक ६३४, श्रेष्ठ गुरु होनेसे अधिगुरु ६३५ और उत्तम वचनोंके धारक होनेसे सुधी ६३६ कहलाते है ॥१७१।। उत्तम बुद्धि होनेसे सुमेधा ६३७, पराक्रमी होनेसे विक्रमी ६३८, सबके अधिपति होनेसे स्वामी ६३९, किसीके द्वारा अनादर हिंसा अथवा निवारण आदि नहीं किये जा सकनेके कारण दुराधर्ष ६४०, सांसारिक विषयोंकी उत्कण्ठासे रहित होनेके कारण निरुत्सुक ६४१, विशेषरूप होनेसे विशिष्ट ६४२, शिष्ट पुरुषोंका पालन करनेसे शिष्टभुक् ६४३, सदाचारपूर्ण होनेसे शिष्ट ६४४, विश्वास अथवा ज्ञानरूप होनेसे प्रत्यय ६४५, मनोहर होनेसे कामन ६४६ और पापरहित होनेसे अनघ ६४७ कहलाते हैं ॥१७२॥ कल्याणसे युक्त होने के कारण क्षेमी ६४८, भव्य जीवोंका कल्याण करनेसे क्षेमंकर ६४९, क्षयरहित होनेसे अक्षय ६५०, कल्याणकारी धर्मके स्वामी होनेसे क्षेमधर्मपति ६५१, क्षमासे युक्त होने के कारण क्षमी ६५२, अल्पज्ञानियोंके ग्रहणमें न आनेसे अप्राय ६५३, सम्यग्ज्ञानके द्वारा ग्रहण करनेके योग्य होनेसे ज्ञाननिग्राह्य ६५४, ध्यानके द्वास जाने जा सकनेके कारण ज्ञानगम्य ६५५ और सबसे उत्कृष्ट होनेके कारण निरुत्तर ६५६ हैं ॥१७३।। पुण्यवान होनेसे सुकृती ६५७, शब्दोंके उत्पादक होनेसे धातु ६५८, पूजाके योग्य होनेसे इज्याह ६५९, समीचीन नयोंसे सहित होने के कारण सुनय -६६०, लक्ष्मीके निवास होनेसे श्रीनिवास ६६१ और समवसरणमें अतिशय विशेषसे चारों ओर मुख दिखनेके कारण चतुरानन ६६२, चतुर्वक्त्र ६६३, चतुरास्य ६६४ और चतुर्मुख ६६५ कहलाते हैं ॥१७४।। सत्यस्वरूप होनेसे सत्यात्मा ६६६, यथार्थ विज्ञानसे सहित होनेके कारण १: नाशरहितः । 'दिष्टान्तः प्रत्ययोऽत्ययः' इत्यभिधानात् । २. अनशनव्रती । ३. सुगी: •ल०, इ०, म०, ५०, स० । ४. धृष्टः। ५. विशिष्यत इति । ६. शिष्टपालकः । . कमनीयः । ८. ज्ञानेन निश्चयेन ग्राह्यः । ९. शब्दयोनिः ।

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