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त्रयोविंशं पर्व
वाप्यो खतटाः प्रसन्नसलिला नीलोत्पलैरातता
गन्धान् भ्रमरावैर्मुखरिता भान्ति हम यास्ताः स्तुमः ।
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तां चापि 'स्फुटपुष्पहासै रुचिरं प्रोद्यत्प्रवालांकुरां
वल्लीनां वनवीथिकां तमपि च प्राकारमाद्यं विभोः ॥ १८५ ॥ प्रोद्यद् विद्रुमसन्निभैः किसलयैरारब्जयद् यद्दिशो
भायुच्चैः पवनाहतैश्च विटपैर्यन्नर्तितुं वोद्यतम् । रक्ताशोकैवनादिकं वनमदश्चैत्यद्रुमैरङ्कितं
वन्देऽहं समवादिकां सृतिमिमां जैनीं 'चतुष्काश्रिताम् ॥ १८६॥ रक्ताशोकवनं वनं च रुचिमत्सप्तच्छ दानामदः
चूतानामपि नन्दनं परतरं यच्चम्पकानां वनम् ।
तचैत्यद्रुममण्डितं भगवतो वन्दामहं वन्दितं
देवेन्द्रविनयानतेन शिरसा श्रीजैनविम्बाङ्कितम् ॥ १८७ ॥
छन्दः (१)
प्राकारात्परतो विभाति रुचिरा हरिवृषगरुडैः श्रीमन्माल्यगजाम्बरैश्य शिखिभिः प्रकटितमहिमा । हंसैश्चाप्युपलक्षिता प्रविलसदृध्वजवसनततिः यातामप्यमरार्चितामभिनुमः पवनविलुलिताम् ॥ १८८
ये मानस्तम्भ भी सदा जयवन्त रहें || १८४|| जिनके किनारे रत्नोंके बने हुए हैं, जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है, जो नील कमलोंसे व्याप्त हैं, और जो सुगन्धिसे अन्धे भ्रमरोंके शब्दों से शब्दायमान होती हुई सुशोभित हो रही हैं मैं उन बावड़ियोंकी स्तुति करता हूँ, तथा जो फूले हुए पुष्परूपी हाससे सुन्दर है और जिसमें पल्लवोंके अंकुर उठ रहे हैं। ऐसे तावनकी भी स्तुति करता हूँ। और इसी प्रकार भगवान्के उस प्रसिद्ध प्रथम कोटकी भी स्तुति करता हूँ || १८५|| जो देदीप्यमान मूँगाके समान अपने पल्लवोंसे समस्त दिशाओंको लाल-लाल कर रहे हैं, जो वायुसे हिलती हुई अपनी ऊँची शाखाओंसे नृत्य करनेके लिए तत्पर हुएके समान जान पड़ते हैं, जो चैत्यवृक्षोंसे सहित हैं, जो जिनेन्द्र भगवान् की समवसरणभूमिमें प्राप्त हुए हैं और जिनकी संख्या चार है ऐसे उन रक्त अशोक आदिके वनोंकी भी मैं वन्दना करता हूँ || १८६ | जो चैत्यवृक्षोंसे मण्डित हैं, जिनमें श्री जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाएँ विराजमान हैं, और इन्द्र भी विनयके कारण झुके हुए अपने मस्तकोंसे जिनकी वन्दना करते हैं ऐसे, भगवान्के लाल अशोकवृक्षोंका वन, यह देदीप्यमान सप्तपर्णवृक्षोंका वन, वह आम्रवृक्षोंका वन और वह अतिशय श्रेष्ठ चम्पकवृक्षोंका वन, इन चारों वनोंकी हम वन्दना करते हैं ॥ १८७॥ जो अतिशय सुन्दर हैं, जो सिंह, बैल, गरुड़, शोभायमान माला, हाथी, वख, मयूर और हंसोंके चिह्नोंसे सहित हैं, जिनका माहात्म्य प्रकट हो रहा है, जो देवताओंके द्वारा भी पूजित हैं और जो वायुसे हिल रही हैं ऐसी जो कोटके आगे देदीप्यमान ध्वजाओंके वस्त्रोंकी पंक्तियाँ सुशोभित
१. विकसित । २. विकास । ३. अशोकसप्तच्छदादिचतुर्वनम् । ४. समवसृतिम् । ५. चतुष्ट्वाश्रिताम् ट० । वनचतुष्टयेन तोषं कृत्वा श्रिताम् । ६. उत्कृष्टतरम् ।
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