Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 657
________________ प्रयोविंश पर्व ५६७ वाणिनीवृत्तम् स जयति यस्य पादयुगलं जयस्पाजं विलसति पद्मगर्म मधिशय्य सल्लक्षणम् । मनसिजरागमर्दनसह जगस्प्रीणनं सुरपतिमौलिशेखरगरूद्रजःपिजरम् ॥१७॥ हरिणीवृत्तम् जयति वृषभो यस्योत्तमं विभाति महासनं हरिपरिश्तं रस्नान परिस्फुरदंशुकम् । अधरितजगन्मेरो कां विडम्बयदुच्चकैतसुरतिरोटामग्रावयुतीरिव तर्जयत् ॥१७॥ __ शिखरिणीवृत्तम् समग्रो बैदग्धीं सकलश शभृमण्डलगतां सितम्छनं भाति त्रिभुवनगुरोर्यस्य विहसत् । जयत्येष श्रीमान् वृषभजिनराणिजितरिपुर्नमहेवेन्द्रोद्यन्मुकुटमणिपृष्टा निकमलः ॥१७८॥ पृथ्वीवृत्तम् जयरयमरनायकैरसकृदर्चिताघ्रिद्वयः सुरोत्करकराधुतैश्चमरजोस्करै-जितः । गिरीन्द्र शिखरे गिरीन्द्र इव योऽमिषिक्तः सुरैः पयोधिशुचिवारिमिः शशिकराकुरस्पर्षिभिः ॥१७९॥ ___ वंशपत्रपतितवृत्तम् यस्य समुज्ज्वला गुणगणा इव रुचिरतरा मानस्यमितो मयूखनिवहा गुणसकिकनिधेः । विश्व जनीनचारुचरितः सकलजगदिनः सोऽवतु मध्यपङ्कजरविर्घषमजिनविभुः ॥१८॥ ~ जिनेन्द्रको मैं अच्छी तरह नमस्कार करता हूँ ॥१७॥ जिनके चरण-युगल कमलोंको जीतनेवाले हैं, उत्तम-उत्तम लक्षणोंसे सहित हैं, कामसम्बन्धी रागको नष्ट करनेमें समर्थ हैं, जगत्को सन्तोष देनेवाले हैं, इन्द्र के मुकुटके अप्रभागसे गिरती हुई मालाके परागसे पीले-पीले हो रहे हैं और कमलके मध्यमें विराजमान कर सुशोभित हो रहे हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव सदा जयवन्त हों ॥१७६।। जो बहुत ऊँचा है, सिंहोंके द्वारा धारण किया हुआ है, रत्नोंसे जड़ा हुआ है, चारों ओर चमकती हुई किरणोंसे सहित है, संसारको नीचा दिखला रहा है, मेरुपर्वतकी शोभाकी खूब विडम्बना कर रहा है और जो नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटके अग्रभागमें लगे हुए रत्नोंकी कान्तिकी तर्जना करता-सा जान पड़ता है ऐसा जिनका बड़ा भारी सिंहासन सुशोभित हो रहा है वे भगवान् वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ॥१७७॥ तीनों लोकोंके गुरु ऐसे जिन भगवानका सफेद छत्र पूर्ण चन्द्रमण्डलसम्बन्धी समस्त शोभाको हँसता हुआ सुशोभित हो रहा है जिन्होंने घातियाकर्मरूपी शत्रुओंको जीत लिया है जिनके चरणकमल नमस्कार करते हुए इन्द्रोंके देदीप्यमान मुकुटोंमें लगे हुए मणियोंसे पर्षित हो रहे हैं और जो अन्तरङ्ग तथा बहिरंग लक्ष्मीसे सहित हैं ऐसे श्री ऋषभ जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहे ॥१७८॥ इन्द्रोंने जिनके चरण-युगलकी पूजा अनेक बार की थी, जिनपर देवोंके समूहने अपने हाथसे हिलाये हुए अनेक चमरोंके समूह दुराये थे और देवोंने मेरु पर्वतपर दूसरे मेरु पर्वतके समान स्थित हुए जिनका, चन्द्रमाको किरणोंके अंकुरोंके साथ स्पर्धा करनेवाले क्षीरसागरके पवित्र जलसे अभिषेक किया था वे श्री ऋषभ जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ॥१७९।। गुणोंके समुद्रस्वरूप जिन भगवानके उज्ज्वल और अतिशय देदीप्यमान किरणोंके समूह गुणोंके समूहके समान चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं, जिनका सुन्दर चरित्र समस्त जीवोंका हित १. कमलमध्ये स्थित्वेत्यर्थः । २. समर्थम् । ३. किरणम् । ४. - किरीटा अ०, स०। ५. सौन्दर्यम् । ६. सम्पूर्णचन्द्रबिम्ब । ७. घर्षित । ८. सकलजनहित । ९. जगत्पतिः । १०. रक्षतु ।

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