Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 655
________________ प्रयोविंश पर्व देहे जिनस्य जयिनः कनकावदाते रेजुस्तदा भृशममी सुरष्टिपाताः । कल्पानिपाम इव मत्समधुनतानामोषाः प्रसूनमधुपानपिपासितानाम् ॥१६॥ दुवदनावृतम् कुअरकरामभुजमिन्दुसमवक्त्रं कुशितमितस्थितशिरोरुहकलापम् । मन्दरतटामधुवक्षसमधीशं तं जिनमवेक्ष्य दिविजाः प्रमदमीयुः ॥१६॥ शशिकला, मणिगणकिरणो वा वृत्तम् विकसितसरसिजदलनिभनयनं करिकरसुरुचिरभुजयुगममकम् । जिनवपुरतिशयहचियुतममरा निदाशुरतिरति विमुकुलनयनाः ॥१७॥ विधुरुचिहरचमरहापरिगतं मनसिजशरशतनिपतनविजयि ।। जिनवरवपुरवधुतसकलमलं नि पपुरमृतमिव शुचि सुरमधुपाः ॥१५८॥ कमलदरूविकसदनि मिषनयनं प्रहसित निभमुखमतिशयसुरमि । सुरनरपरिवृतनयनसुखकर व्यहचदधिकरुचि जिनवृषमवपुः ॥१६९॥ जिनमुखशतदलमनिमिषनयनभ्रमरमतिसुरभि विधुतविधुरुचि। . मनसिजहिमहतिविरहितमतिरुक् पपुरविदितभूति सुरयुवतिरशः ॥१७॥ उस समय घातियाकर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाले जिनेन्द्रभगवानके सुवर्णके समान उज्ज्वल शरीरपर जो देवोंके नेत्रोंके प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे वे ऐसे अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो कल्पवृक्षके अवयवोंपर पुष्पोंका रस पीनेकी इच्छा करनेवाले मदोन्मत्त भ्रमरोंके समूह ही हो ॥१६५।। जिनकी भुजाएँ हाथीकी सँरके समान हैं, जिनका मुख चन्द्रमाके समान है, जिनके केशोंका समूह टेढ़ा, परिमित (वृद्धिसे रहित) और स्थित ( नहीं फड़नेवाला) है और जिनका वक्षःस्थल मेरुपर्वतके तटके समान है ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रभगवानको देखकर वे देव बहुत ही हर्षित हुए थे।॥१६६।। जिसके नेत्र फूले हुए कमलके दलके समान हैं, जिनकी दोनों भुजाएँ हाथीकी सँड़ के समान हैं, जो निर्मल है, और जो अत्यन्त कान्तिसे युक्त है ऐसे जिनेन्द्रभगवान्के शरीरको वे देव लोम बड़े भारी सन्तोषसे नेत्रोंको उघाड़-उघाड़कर देख रहेथे॥१६॥ जो चन्द्रमाकी कान्तिको हरण करनेवाले चमरोंसे घिरा हुआ है, जो कामदेवके सैकड़ों वाणोंके निपातको जोतनेवाला है, जिसने समस्त मल नष्ट कर दिये हैं और जो अतिशय पवित्र है ऐसे जिनेन्द्रदेवके शरीरको देवरूपी भ्रमर अमृतके समान पान करते थे॥१६८।। जिसके टिमकाररहित नेत्र कमलबलके समान सुशोभित हो रहे थे, जिसका मुख हँसते हुएके समान जान पड़ता था, जो अतिशय सुगन्धिसे युक्त था, देव और मनुष्योंके स्वामियोंके नेत्रोंको सुख करनेवाला था, और अधिक कान्तिसे. सहित था ऐसा भगवान् वृषभदेवका वह शरीर बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ॥१६९॥ जिसपर टिमकाररहित नेत्र ही भ्रमर बैठे हुए हैं, जो अत्यन्त सुगन्धित है जिसने चन्द्रमाकी कान्तिको तिरस्कृत कर दिया है, जो कामदेवरूपी हिमके आघातसे रहित है और जो अतिशय कान्तिमान् है ऐसे भगवान्के मुखरूपी कमलको देवांगनाओंके नेत्र असन्तुष्टरूपसे पान कर रहे थे । भावार्थ १. जयशीलस्य । २. कल्पवृक्षशरीरे यथा । ३. सन्तोषविकसित । ४. पानं चकः, पोतवन्तः । ५. निमिषरहित। ६. हसनसदृश । ७. अधिकान्ति । ८. जिनमुखदर्शनात् पूर्वमेव विकसन्त्यः पानाय इत्यभिप्रायः । अविज्ञातसन्तोषं यथा ।

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