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आदिपुराणम् गुरौ भक्ति परां तन्वन् कुर्वन् धर्मप्रभावनाम् । स भूत्या परयोत्तस्थे भगवन्दनाविधौ ॥११॥ अथ सेनाम्बुधेः क्षोममातन्वचब्धिनिःस्वनः । मानन्दपटहो मन्द्रं दध्वान ध्वानयन् दिशः ॥१२॥ प्रतस्थेऽथ महाभागो वन्दारुर्मरताधिपः । जिनं हस्स्यश्वपादातरथ कड्यावृतोऽमितः ॥१३॥ रेजे प्रचलिता सेना ततानकपृथुन्वनिः । वेलेव वारिधः प्रेहदसम्बध्वजवीविका ॥१४॥
तया परिवृतः प्राप स जिनास्थानमण्डलम् । प्रसपत्प्रमया दिक्षु जितमार्तण्डमण्डलम् ॥१५॥ ---- परीत्य पूजयन् मानस्तम्मान सोऽत्पत्ततः परम् । खाता लतावनं सालं बनानां च चतुष्टयम् ॥१६॥ द्वितीयं सालमुकम्मे ध्वजात् कल्पगुमावलिम् । स्तूपान् प्रासादमालां च पश्यन् विस्मयमाप सः ॥१०॥ ततो दौवारिकदेवैः संभ्राम्यनिः प्रवेशितः । श्रीमण्डपस्य बैदग्धी सोऽपश्यत् स्वर्गजित्वरीम् ॥१८॥ ततः प्रदक्षिणीकुर्वन् धर्मचक्रचतुष्टयम् । लक्ष्मीवान् पूजयामास प्राप्य प्रथमपीठिकाम् ॥१९॥ ततो द्वितीयपीठस्थान् विभोरष्टौ महावजान् । सोऽर्चयामास संप्रीतिः'पूतैर्गन्धादिवस्तुमिः ॥२०॥ मध्ये 'गन्धकुटीद्धद्धि परायें हरिविष्टरे । उदयाचलमूर्धस्थमिवाकं जिनमैक्षत ॥२१॥
और नगरके मुख्य-मुख्य लोगोंके साथ पूजाकी बड़ी भारी सामग्री लेकर जानेके लिए तैयार हुए ॥१०॥ गुरुदेव भगवान् वृषभदेवमें उत्कृष्ट भक्तिको बढ़ाते हुए और धर्मकी प्रभावना करते हुए महाराज भरत भगवान्की बन्दनाके लिए उठे ॥११॥
तदनन्तर जिनका शब्द समुद्रकी गर्जनाके समान है ऐसे आनन्दकालमें बजनेवाले नगाड़े सेनारूपी समुद्रमें क्षोभ फैलाते हुए और दिशाओंको शब्दायमान करते हुए गम्भीर शब्द करने लगे॥१२॥ अथानन्तर-जो महाभाग्यशाली है, जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना करनेका अभिलाषी है, भरतक्षेत्रका स्वामी है और चारों ओरसे हाथी-घोड़े पदाति तथा रथोंके समूहसे घिरा हुआ है ऐसे महाराज भरतने प्रस्थान किया ॥१३॥ उस समय वह चलती हुई सेना समुद्रको वेलाके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि सेनामें जो नगाड़ोंका शब्द फैल रहा था वही उसकी गर्जनाका शब्द था और फहराती हुई असंख्यात ध्वजाएँ हो लहरोंके समान जान पड़ती थीं ॥१४॥ इस प्रकार सेनासे घिरे हुए महाराज भरत, दिशाओंमें फैलती हुई प्रभासे जिसने सूर्यमण्डलको जीत लिया है ऐसे भगवानके समवसरणमें जा पहुँचे ॥१५॥ वे सबसे पहले समवसरण भूमिको प्रदक्षिणा देकर मानस्तम्भोंकी पूजा करते हुए आगे बढ़े, वहाँ क्रम-क्रमसे परिखा, लताओंके वन, कोट, चार वन और दूसरे कोटको उल्लंघन कर ध्वजाओंको, कल्पवृक्षोंकी पंक्तियोंको, स्तूपोंको और मकानोंके समूहको देखते हुए आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥१६-१७।। तदनन्तर सम्भ्रमको प्राप्त हुए द्वारपाल देवोंके द्वारा भीतर प्रवेश कराये हुए भरत महाराजने स्वर्गको जीतनेवाली श्रीमण्डपकी शोभा देखी ॥१८।। तदनन्तर अतिशय शोभायुक्त भरतने प्रथम पीठिकापर पहुँचकर प्रदक्षिणा देते हुए चारों ओर धर्मचक्रोंकी पूजा की ॥१९॥ तदनन्तर उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर दूसरे पीठपर स्थित भगवान्को ध्वजाओंकी पवित्र सुगन्ध आदि द्रव्योंसे पूजा को ॥२०॥ तदनन्तर उदयाचल पर्वतके शिखरपर स्थित सूर्यके समान गन्धकुटीके बीच में महामूल्य-श्रेष्ठ सिंहासनपर स्थित और अनेक देदीप्यमान
१. उद्यतोऽभूत् । उद्योगं करोति स्मेत्यर्थः । २. चचाल । ३. रथसमूहः । ४. विस्तृत । ५. चलत् । ६. सेनया । ७ - नत्यत्ततः ल । अत्यत् अतिक्रान्तवान् । ८. अतिक्रम्य । ९. सौन्दर्यम् । १०. जयशीलाम् । ११. संप्रीतः ब०, ल०, द०, इ० । १२. गन्वकुट्या मध्ये ।