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आदिपुराणम्
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'त्रिष्वेकद्वय विश्लेवाद' उद्भूता मार्गदुर्णयाः । षोढा भवन्ति मूढानां तेऽप्यत्र विनिपातिताः ॥ १२३ ॥ * इतो माधिकमस्त्यम्यत् नाभून्नैव भविष्यति । इत्याप्सादित्रये दाढर्याद् दर्शनस्य विशुद्धता ॥ १२४॥ आसो गुणैर्युतो धूतकलंको निर्मलाशयः । निष्ठितार्थो भवेत् 'सार्वस्तदामासास्ततोऽपरे ॥ १२५ ॥ आगमस्तद्वचोऽशेष पुरुषार्थानुशासनम् । नयप्रमाणगम्भीरं तदामांसोऽसतां वचः ॥ १२६ ॥ पदार्थस्तु द्विधा शेयो जीवाजीवविभागतः । यथोक्तलक्षणो जीवस्त्रिकोटि परिणाम भाक् ॥ १२७ ॥ मध्यामग्यो तथा मुक्त इति जीवस्त्रिधोदितः । भविष्यत्सिद्धिको मध्यः सुवर्णोपलसंनिम्रः ॥१२८॥ roceed द्विपक्षः स्यादन्धपाषाणसंनिभः । मुक्तिकारणसामग्री न तस्यास्ति कदाचन ॥१२९॥ कर्मबन्धननिर्मुक्तस्त्रिलोकशिखरालयः । सिद्धो निरन्जनः प्रोक्तः प्राप्तानन्तसुखोदयः ॥ १३० ॥
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कारण होता है ।। १२२ ।। इन तीनों में से कोई तो अलग-अलग एक-एकसे मोक्ष मानते हैं और कोई दो-दोसे मोक्ष मानते हैं इस प्रकार मूर्ख लोगोंने मोक्षमार्गके विषयमें छह प्रकारके मिथ्यानयोंकी कल्पना की है परन्तु इस उपर्युक्त कथनसे उन सभीका खण्डन हो जाता है । भावार्थकोई केवल दर्शनसे, कोई ज्ञानमात्रसे, कोई मात्र चारित्र से, कोई दर्शन और ज्ञान दोसे, कोई दर्शन और चारित्र इन दोसे और कोई ज्ञान तथा चारित्र इन दोसे मोक्ष मानते हैं। इस प्रकार मोक्षमार्गके विषय में छह प्रकारके मिध्यानयकी कल्पना करते हैं परन्तु उनकी यह कल्पना ठीक नहीं है क्योंकि तीनोंकी एकतासे ही मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है || १२३ || जैनधर्म
आप्त, आगम तथा पदार्थका जो स्वरूप कहा गया है उससे अधिक वा कम न तो है न था और न आगे ही होगा। इस प्रकार आप्त आदि तीनोंके विषयमें श्रद्धानकी दृढ़ता होनेसे 'सम्यग्दर्शन में विशुद्धता उत्पन्न होती है ||१२४|| जो अनन्तज्ञान आदि गुणोंसे सहित हो, घातिया कर्मरूपी कलंकसे रहित हो, निर्मल आशयका धारक हो, कृतकृत्य हो और सबका भला करनेवाला हो वह आप्त कहलाता है। इसके सिवाय अन्य देव आप्ताभास कहलाते हैं || १२५|| जो आप्तका कहा हुआ हो, समस्त पुरुषार्थोंका वर्णन करनेवाला हो और नय तथा प्रमाणोंसे गम्भीर हो उसे आगम कहते हैं, इसके अतिरिक्त असत्पुरुषोंके वचन आगमाभास कहलाते हैं ||१२६|| जीव और अजीवके भेदसे पदार्थके दो भेद जानना चाहिए। उनमें से जिसका चेतनारूप लक्षण ऊपर कहा जा चुका है और जो उत्पाद, व्यय तथा धौव्यरूप तीन प्रकारके परिणमनसे युक्त है वह जीव कहलाता है ।। १२७|| भव्य - अभव्य और मुक्त इस प्रकार जीवके तीन भेद कहे गये हैं, जिसे आगामी कालमें सिद्धि प्राप्त हो सके उसे भव्य कहते हैं, भब्य जीव सुवर्ण-पाषाणके समान होता है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त मिलनेपर सुवर्णपाषाण आगे चलकर शुद्ध सुवर्णरूप हो जाता है उसी प्रकार भव्यजीव भी निमित्त मिलनेपर शुद्ध सिद्धस्वरूप हो जाता है || १२८ || जो भव्यजीवसे विपरीत है अर्थात् जिसे कभी भी सिद्धि की प्राप्ति न हो सके उसे अभव्य कहते हैं, अभव्यजीव अन्धपाषाणके समान होता है। अर्थात् जिस प्रकार अन्धपाषाण कभी भी सुवर्णरूप नहीं हो सकता उसी प्रकार अभव्य जीव भी कभी सिद्धस्वरूप नहीं हो सकता। अभव्य जीवको मोक्ष प्राप्त होनेकी सामग्री कभी भी प्राप्त नहीं होती है || १२९ || और जो कर्मबन्धनसे छूट चुके हैं, तीनों लोकोंका
१. दर्शनज्ञानचारित्रेषु । २. केचिद्दर्शनं मुक्त्वाऽन्ये ज्ञानं विहाय परे चारित्रं विना द्वाभ्यामेव मोक्षमिति वदन्ति । द्वयविशेषात् । अन्ये ज्ञानादेव, दर्शनादेव, चारित्रादेव मोक्षमिति वदन्ति इति मार्गदुर्नयाः षट्काराः भवन्ति । ३. निराकृताः । ४. यथोक्ताप्तादित्रयात् । ५. सर्वहितः । ६. उत्पत्तिस्थितिप्रलयरूपपरिणमनभाक् । ७. अभव्यस्य ।